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रहने से लगने वाले दोष, उनका स्वरूप और तत्संबंधी यतनाएँ, 'द्रव्य-भावप्रतिबद्ध' रूप तृतीय भंग वाले उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष आदि, 'द्रव्य-भाव-अप्रतिबद्ध' रूप चतुर्थ भंग वाले उपाश्रयों की निर्दोषता का प्ररूपण।
___द्वितीय सूत्र की व्याख्या में इसका प्रतिपादन किया गया है कि जिस उपाश्रय के समीप गृहस्थ रहते हों वहाँ निग्रंथियों का निवास विहित है। द्रव्य-प्रतिबद्ध तथा भावप्रतिबद्ध उपाश्रयों में रहने से निग्रंथियों को लगने वाले दोषों और यतनाओं का भी वर्णन किया गया है।' गृहपतिकुलमध्यमासप्रकृतसूत्रः
श्रमणों का गृहपतिकुल के मध्य में रहना वर्जित है। इसके विचार के लिए आचार्य ने शालाद्वार, मध्यद्वार और छिंडिकाद्वार का आश्रय लिया है। १. शालाद्वार श्रमणों को शाला में रहने से लगने वाले दोषों का १. प्रत्यपाय, २. वैक्रिय, ३. अपावृत, ४. आदर्श, ५. कल्पस्थ, ६. भक्त, ७. पृथिवी, ८. उदक, ९. अग्नि, १०. बीज और ११. अवहन्न—इन ग्यारह द्वारों से वर्णन किया है।'
२. मध्यद्वार श्रमणों को शाला के मध्य में बने हुए भवन आदि में रहने से लगने वाले दोषों का उपर्युक्त ग्यारह द्वारों के उपरांत १. अतिगमन, २. अनाभोग, ३. अवभाषण, ४. मज्जन और ५. हिरण्य इन पाँच द्वारों से निरूपण किया है। ३. छिंडिकाद्वार छिंडिका का अर्थ है पुरोहड अर्थात् वसति के द्वार पर बना हुआ प्रतिश्रय। छिंडिका में रहने से लगने वाले दोषों का विविध दृष्टियों से विचार किया है। इन द्वारों से संबंध रखने वाली यतनाओं का भी वर्णन किया है।"
श्रमणियों की दृष्टि से गृहपतिमध्यवास का विचार करते हुए आचार्य ने बताया है कि उन्हें भी गृहपतिकुल के मध्य में नहीं रहना चाहिए। शाला आदि में रहने से श्रमणियों को अनेक प्रकार के दोष लगते हैं। व्यवशमनप्रकृतसूत्रः
इस सूत्र में यह बताया गया है कि साधुओं में परस्पर क्लेश होने पर उपशम धारण करके क्लेश शांत कर लेना चाहिए। जो उपशम धारणा करता है वह आराधक है। जो उपशम धारणा नहीं
१. गा. २५८३- २६१५। २. गा. २६१६- २६२८। ३. गा. २६३३- २६४४। ४. गा. २६४५- २६५२। ५. गा. २६५३-२६६७। ६. गा. २६६८-२६७५। ७. इस प्रकृत को भाष्यकारने गा. ३२४२ में प्राभृतसूत्र के रूप में तथा चूर्णिकार और विशेषचूर्णिकार ने अधिकरणसूत्र के रूप में दिया है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने सूत्र के वास्तविक आशय को ध्यान में रखते हुए इसका नाम व्यवशमनसूत्र रखा है। (बृहत्कल्पसूत्र, तृतीय विभाग, विषयानुक्रम, पृ. ३०।
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