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________________ मैथुनप्रतिसेवन के दोष को प्राप्त होता है एवं उसे चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। इसी प्रकार साध्वी के लिए भी उपर्युक्त अवस्था में (पुरुष के हाथ का स्पर्श होने पर) चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। अधिकरणविषयक सूत्र में यह बताया है कि यदि कोई भिक्षु क्लेश को शांत किये बिना ही अन्य गण में जाकर मिल जाए एवं उस गण के आचार्य को यह मालूम हो जाए कि यह साधु कलह करके आया हुआ है तो उसे पाँच रात-दिन का छेद प्रायश्चित्त देना चाहिए तथा अपने पास रखकर समझा-बुझा कर शांत करके पुनः अपने गण में भेज देना चाहिए। संस्तृतासंस्तृतनिर्विचिकित्सविषयक सूत्रों में बताया गया है कि सशक्त अथवा अशक्त भिक्ष सूर्य के उदय एवं अनस्त के प्रति निःशंक होकर भोजन करता हो और बाद में मालूम हो कि सूर्य उगा ही नहीं है अथवा अस्त हो गया है एवं ऐसा मालूम होते ही भोजन छोड दे तो उसकी रात्रिभोजन विरति अखंडित रहती है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त के प्रति शंकाशील होकर आहार करने वाले की रात्रिभोजन विरति खंडित होती है। उद्गारप्रकृत सूत्र में बताया है कि निग्रंथ-निग्रंथियों को डकार(उद्गार) आदि आने पर थूक कर मुख साफ कर लेने से रात्रिभोजन का दोष नहीं लगता। आहारविषयक सूत्र में बताया है कि आहारादि ग्रहण करते समय साधु-साध्वी के पात्र में द्वींद्रियादिक जीव, बीज, रज आदि आ पडे तो उसे यतनापूर्वक निकाल कर आहार को शुद्ध करके खाना चाहिए। यदि रज आदि आहार से न निकले सके तो वह आहार लेनेवाला न स्वयं खाये, न अन्य साधु-साध्वी को खिलाये अपितु उसे एंकात निर्दोष स्थान में परिष्ठापित कर दे। आहारादि लेते समय सचित्त पानी कि बँदे आहार में गिर जायें और वह आहार गर्म हो तो उसे खाने में कोई दोष नहीं क्योंकि उसमें पडी बूंदे अचित्त हो जाती हैं। यदि वह आहार ठंडा है तो उसे न स्वयं खाना चाहिए, न दूसरों को दिलाना चाहिए अपितु एकांत स्थान में यतनापूर्वक रख देना चाहिए। ब्रह्मरक्षाविषयक सूत्रों में बताया गया है कि पेशाब आदि करते समय साधु-साध्वी की किसी इंद्रिय का पशु-पक्षी स्पर्श करे और वह उसे सुखदायी माने तो उसे चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त लगता है। निग्रंथी के एकाकी वास आदि का निषेध करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि निग्रंथि को अकेली रहना अकल्प्य है। इसी प्रकार साध्वी को नग्न रहना, पात्ररहित रहना, व्युत्सृष्टकाय होकर (शरीर को ढीला-ढाला रखकर) रहना, ग्रामादि के बाहर आतापना लेना, उत्कटुकासन पर बैठकर कायोत्सर्ग करना, वीरासन पर बैठ कर कायोत्सर्ग करना, दंडासन पर बैठ कर कायोत्सर्ग करना, लगंडशायी होकर कायोत्सर्ग (३२)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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