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________________ उपस्थापना, संभोग (एक मण्डली में भोजन), संवास इत्यादि के लिए भी अयोग्य हैं।' अविनीत, विकृतिप्रतिबद्ध व अव्यवशमित-प्राभृत (क्रोधादि शांत न करने वाला) वाचना-सूत्रादि पढाने के लिए अयोग्य हैं। विनीत, विकृतिहीन एवं उपशांतकषाय वाचना के लिए सर्वथा योग्य है। ____दुष्ट, मूढ, एवं व्युद्ग्राहित (विपरीत बोध में दृढ) दुःसंज्ञाप्य हैं अर्थात् कठिनाई से समझाने योग्य हैं। ये उपदेश, प्रव्रज्या आदि के अनधिकारी हैं। अदुष्ट, अमूढ़, तथा अव्युद्ग्राहित उपदेश आदि के अधिकारी हैं। निग्रंथी ग्लान रुग्ण अवस्था में हो एवं किसी कारण से अपने पिता, भ्राता, पुत्र आदि का सहारा लेकर उठे-बैठे तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त गुरु प्रायश्चित्त का सेवन करना पडता है। इसी प्रकार रुग्ण निग्रंथ अपनी माता, भगिनी, पुत्री आदि का सहारा ले तो उसे भी चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का सेवन करना पड़ता है। निग्रंथ-निग्रंथियों की कालातिक्रांत एवं क्षेत्रातिक्रांत अशनादि ग्रहण करना अकल्प्य है। प्रथम पौरुषी (पहर) का लाया हुआ आहार चतुर्थ पौरुषी तक रखना अकल्प्य है। कदाचित् अनजान में इस प्रकार का आहार रह भी जाए तो उसे न खुद को खाना चाहिए, न अन्य साधु को देना चाहिए। एकांत निर्दोष स्थान देखकर उसकी यतनापूर्वक परिष्ठापना कर देनी चाहिए उसे सावधानी से रख देना चाहिए। अन्यथा चातुर्मासिक लघु प्रायश्चित्त का भागी होना पडता है। इसी प्रकार क्षेत्र की मर्यादा का उल्लंघन करने पर भी चातुर्मासिक लघु प्रायश्चित्त का सेवन करना पड़ता है।" भिक्षाचर्या में अनजाने अनेषणीय स्निग्ध अशनादि ले लिया गया हो तो उसे अनुपस्थितिश्रमण (अनारोपितमहाव्रत) को दे देना चाहिए। यदि वैसा श्रमण न हो तो उसकी निर्दोष भूमि मे परिष्ठापना कर देनी चाहिए। कल्पस्थित अर्थात् आचेलक्यादि दस प्रकार के कल्प में स्थित श्रमणों के लिए बनाया हुआ आहार आदि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्प्य है, कल्पस्थित श्रमणों के लिए नहीं। जो आहार आदि अकल्पस्थिति श्रमणों के लिए बनाया गया हो वह कल्पस्थिति श्रमणों के लिए अकल्प्य होता है किंतु अकल्पस्थिति श्रमणों के लिए कल्प्य होता है। कल्पस्थिति का अर्थ है पञ्चयामधर्मप्रतिपन्न पंचयामिक एवं अकल्पस्थित का अर्थ है चतुर्यामधर्मप्रतिपन्न–चातुर्यामिक। ४.उ.४,सू.१४-५। १. उ.४, सू.५–९। ५.उ.४, सू.१६-७ २. उ.४, सू.१०-१। ६.उ.४,सू.१८॥ ३. उ.४, सू.१२-३। ७. उ.४, सू.१९। (३०)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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