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________________ चतुर्थः प्रकीर्णकतरङ्गः (अर्थः) धव- - ध्रुव(= उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपद) मैत्र = अनुराधा, इंदु = रोहिणी,मूल,रेवती,हस्त और मघा नक्षत्र में यदि लत्तादोष न हो तो विवाह शुभ माना गया है। ( बुध अपने से पीछे के ७ वें नक्षत्र, राहु ९ वें, पूर्णचन्द्रमा पीछे के २२ वें, और शुक्र अपने पीछे की ५ वें नक्षत्र पर लतादोषकारक (लात मारना) होता है।) जिस नक्षत्र पर सूर्य है उससे अपने आगे के १२ वें शनि ८ वें बृहस्पति ६ ठे और मंगल तीसरे नक्षत्र पर लत्तादोषकारक होते हैं। राहु सदा वक्री होता है अतः गणनाक्रम से ९ वाँ नक्षत्र लत्ता कारक होगा। जैसे अश्विनी में राहु हो तो उसके पीछे की नवीं नक्षत्र पूर्वाषाढा नहीं होगा अपि च अश्विनी से अनुलोम ९ वां नक्षत्र आश्लेषा ही समझनी चाहिए॥५९॥ [मूल रेवत्यादितिकर्णेभ्यो द्वयं हस्तेन्दमैत्रभम्। प्रयाणे शुभदं प्रोक्तं त्यक्त्वा तारां विनिन्दिताम् ॥३१५॥ (४.५०) (अन्वयः) विनिन्दितां तारां त्यक्त्वा रेवत्यादितिकर्णेभ्यो द्वयं हस्तेन्दुमैत्रभं प्रयाणे शुभदं प्रोक्तम्। (अर्थः) निंदित तारा को छोडकर रेवती, पुनर्वसु, हस्त, रोहिणी, अनुराधा नक्षत्र प्रयाण में शुभ फल देने वाले कहे गये है [मूल] आद्यं रात्रिचतुष्टयं निऋतिभं पौष्णं मघां चाष्टमीम्, दर्श भूततिथिं च पर्वदिवसं त्यक्त्वा च सन्ध्याद्वयम्। इज्ये धीतनुधर्मगेऽथ (मार्ग)भृगुजे चन्द्रे शुभे कामिनीम्, पुत्रार्थी पुरुषः सुहृष्टमनसा सेवेत् समायां निशि ॥३१६॥ (४.५१) (शार्दूलविक्रीडितम्) (अन्वयः) आद्यं रात्रिचतुष्टयम्, निऋतिभं पौष्णं मघां च, अष्टमी दर्शं भूततिथिं च, पर्वदिवसं च सन्ध्याद्वयं च त्यक्त्वा अथ इज्ये भृगुजे धीतनुधर्मगे, (मार्ग) शुभे चन्द्रे पुत्रार्थी पुरुषः सुहृष्टमनसा समायां निशि कामिनी सेवेत्। (अर्थः) रजोदर्शन के दिन से चार दिन, मूल, रेवती, मघा, नक्षत्र अष्टमी-चतुर्दशी-अमावास्या और पर्वदिन और दोनों संध्यासमय को छोडकर गुरु, शुक्र लग्न, पंचम और नवम स्थान में हो, चंद्रमा शुभ हो तब पुत्रार्थीपुरुष सम (२,४,६) तिथि में रात्री के समय में प्रसन्न मन के साथ स्त्री का सेवन करे। [मूल] सग्निवारुण:श्च युता भद्रा तिथिर्यदा। यदि सौरारयोर्वारस्तदा जाता विषाङ्गना ॥३१७॥ (४.५२) १. ज्ञराहुपूर्णेन्दुसिताः स्वपृष्ठे भं सप्तगोजातिशरैर्मितं हि। संलत्तयन्तेऽर्कशनीज्यभौमाः सूर्याष्टतर्काग्निमितं पुरस्तात्॥५९॥ (मुहूर्तचिन्तामणिः, विवाहप्रकरणं श्लोक-५९ कर्ता-रामाचार्य,) २. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८ ३. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८ ४. अयं श्लोकः हस्तप्रतिषु न दृश्यते-को२०००८, को१५९३२, ओ २८७८
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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