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(अन्वयः) तस्माच्छरीरे निमित्तकारणं न साक्षात्तु कर्मैव हि रोगकारणम्, ते रसादयोऽसमवायिकारणं प्रदुष्टाः दोषाः समवायिकारणम् ।
(अर्थः) इसलिए शरीर (रोग का) साक्षात् कारण नहीं है अपि तु कर्म ही रोग का निमित्तकारण है, छह रस (मधुर-अम्ल-लवण-कटु-कषाय- तिक्त अथवा रसादि धातु) असमवायिकारण है और अतिशय ऐसे दोष समवायिकारण (उपादानकारण) हैं।
स्वस्थेन प्रातरुत्थाय दन्तधावनपूर्वकम्।
[मूल]
ताम्बूलमर्दनस्नानसुगन्धाहारसेवनम्॥२८२॥(४.१७)
(अन्वयः) स्वस्थेन प्रातरुत्थाय दन्तधावनपूर्वकं ताम्बूलमर्दनस्नानसुगन्धाहारसेवनम्। (अर्थः) स्वस्थ (चित्त से) द्वारा प्रातः काल उठकर दांतों का मार्जन कर के ताम्बूल, मर्दन, स्नान, सुगंध, आहार का सेवन करना चाहिए।
[मूल]
(अन्वयः) वृत्तिहीनं पदभ्रष्टं शोकार्तं शरणागतं व्याधिपीडितं मानवं तु शक्तितः अनुवर्तेत।
(अर्थः)
वृत्तिहीनं पदभ्रष्टं शोकार्तं शरणागतम्।
शक्तितस्त्वनुवर्तेत मानवं व्याधिपीडितम्॥२८३॥(४.१८)
[मूल]
स्मशाने च नदीतीरे शून्यगेहे चतुष्पथे।
देवालये वने रात्रौ न गच्छेद्रोगभीरुकः॥ २८४॥ (४.१९)
(अन्वयः) रोगभीरुकः रात्रौ स्मशाने नदीतीरे शून्यगेहे चतुष्पथे देवालये वने च न गच्छेत्।
(अर्थः)
[मूल]
आजीविका से हीन, पद से भ्रष्ट, शोक से व्याकुल, शरण आए हुवे, रोग से पीडित ऐसे मनुष्य की शक्ति के देखभाल करनी चाहिए।
बुद्धिसागरः
[मूल]
हिताहारविहारेषु दक्षो नित्यं जितेन्द्रियः ।
दयाधर्मविवेकज्ञः स भवेत्सर्वदा सुखी ॥ २८५॥ (४.२०)
(अन्वयः) (यः) हिताहारविहारेषु नित्यं दक्षः जितेन्द्रियः, दयाधर्मविवेकज्ञः स सर्वदा सुखी भवेत् । (अर्थः)
रोग से डरने वाले को रात्रि के समय स्मशान में, नदी का तीर पर, जिस घर में कोई नही है ऐसे घर में, चौक, देवालय में और वन में नही जाना चाहिए।
हितकर आहार विहार में सदा सावधान रहने वाला, जिसने अपने इंद्रियों को जिता है, दया, धर्म, विवेक को जानने वाला (ऐसा ) वह पुरुष सदा सुखी होता है।
वर्षाहिमग्रीष्मचितं विकारं विशोधयेत् यत्नपरो हिताशी ।
शरद्वसन्ताभ्रदिनेषु तस्य न जातु रोगाः प्रभवन्ति तज्जाः ॥ २८६॥ (४.२१) (उपजातिः)
१. ज्ज्ञाः इति को२०००८, को१५९३२, ओ २८