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________________ बुद्धिसागरः (अन्वयः) तस्मिन् अष्टघ्ने क्षेत्रफले भैर्भक्ते शेषऋक्षकम् भेऽष्टभक्ते व्ययोऽपि स्याद्। व्ययाद् बह्वायं सद्गृहम्। (अर्थः) उस क्षेत्रफल का आठ से गुणाकार कर के सत्ताइस से भाग देने पर जो शेष रहती है वह वास्तु का नक्षत्र है। क्षेत्र के नक्षत्र को आठ से भाग देने पर जो शेष रहती है वह वास्तु का व्यय है। व्यय से अधिक आय वाला घर शुभ होता है। [मल] व्यययुक्ते फले तस्मिन् ध्रुवाद्यक्षरमिश्रिते। त्रिभक्तेऽशाश्च शेषाङ्कुरिन्द्रान्तकनराधिपाः॥२५८॥(३.६४) (अन्वयः) तस्मिन् व्यययुक्ते फले ध्रुवाद्यक्षरमिश्रिते त्रिभक्ते शेषाङ्कुरिन्द्रान्तकनराधिपाः अंशाश्च (भवन्ति)। (अर्थः) उस क्षेत्रफल, व्यय और ध्रुव आदि घर के नामाक्षर को जोडकर तीन से भाग देने पर जो शेष रहती है वह वास्तु का अंशक है। (क्षेत्रफल+व्यय+ध्रुव आदि घर के नामाक्षरः ३= अंशक) ईंद्र,यम और राजा ये अंशक के नाम है। [मूल] ध्रुवं धान्यं जयं नन्दं खरं कान्तं मनोहरम्। सुमुखं दुर्मुखं क्रूरं विपक्षं धनदं क्षयम्॥२५९॥(३.६५) [मूल] आक्रन्दं विपुलं चैव षोडशं विजयाह्वयम्। गृहनामानि जायन्ते मन्दिरालिन्दभेदतः॥२६०॥(३.६६)युग्मम्॥ (अन्वयः) मन्दिरालिन्दभेदतः ध्रुवं धान्यं जयं नन्दं खरं कान्तं मनोहरं सुमुखं दुर्मुखं क्रूरं विपक्षं धनदं क्षयम् आक्रन्दं विपुलं विजयाह्वयम् चैव षोडशं गृहनामानि जायन्ते। (अर्थः) घर के अलंद(=घर के सामने रही खुली जगह) के भेद से ध्रुव, धान्य, जय, नंद, खर, कांत, मनोहर, सुमुख, दुर्मुख, क्रूर, विपक्ष, धनद, क्षय, आक्रन्द, विपुल और विजय सोलह घर के नाम निर्माण होते हैं। [मूल] लग्ना,स्ता रि त्रि तुर्येषु, जीव,ज्ञा,ळ,ऽर्कि भार्गवाः । स्थिता यद्गहनिर्माणे शताब्दायुर्गृहं भवेत्॥२६१॥ (३.६७) (अन्वयः) यद् गेहनिर्माणे लग्नास्तारित्रितुर्येषु जीवज्ञार्काऽऽर्किभार्गवाः स्थिताः तद् गृहं शताब्दायुः भवेत्। (अर्थः) जिस गृह के निर्माण समय में कुंडली के लग्न स्थान में गुरु हो, सातवें स्थान में बुध हो, छठवे स्थान में सूर्य हो,तीसरे स्थान में शनि हो तथा चौथे स्थान में शुक्र हो वह घर सौ साल तक टिकता है। १. मूलराशौ व्ययं क्षिप्त्वा गृहनामाक्षराणि च। त्रिभिरेव हरेद् भागं यच्छेषमंशकः स्मृतः॥ इन्द्रो यमश्च राजा वै चांशकाः त्रयमेव च। (शिल्परत्नाकर १-११९-१२०) २. ध्रुवं धान्यं जयं नन्दं खरं कान्तं मनोहरम्। सुमुखं दुर्मुखं क्रूरं विपक्षं धनदं क्षयम्॥६४॥ आक्रन्दं विपुलं चैव षोडशं विजयाह्वयम्। कथितालिन्दभेदेन ध्रुवादि नाम षोडष॥६५॥ युग्मम्।। (शिल्परत्नाकर १- ११७-११८) ३. लग्ने गुरौ रवौ षष्ठे छूने ज्ञे भार्गवे सुखे।मन्द्रे त्रिगे कृतं तिष्ठेन्मन्दिरं शरदां शतम्।। (शिल्परत्नाकर १४-१५५)
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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