________________
द्वितीयो नयतरङ्गः
(अन्वयः) यः नर: धनोत्पत्तिमनालोच्य अधिकारी भवेत्, विनाऽऽयं वा व्ययं कर्तुः तस्य स्वप्नेऽपि सुखम् न
(भवेत)। (अर्थः) जिस प्रकार आमदनी का उपाय सोचे बिना खर्चा करनेवाला स्वप्न में भी सुखी नही होता उस
प्रकार जो पुरुष धनोत्पत्ति का विचार न कर के अधिकारी होता है उस को स्वप्न में भी सुख नही
होगा। [मूल] नृपाधिकारी नृपतेर्नियोगिषु च वैरकृत्।
स यथा मकरद्वेषी जलावासी विनश्यति॥१५२॥(२.६५) (अन्वयः) नृपतेः नियोगिषु वैरकृत् च स नृपाधिकारी यथा मकरद्वेषी जलावासी विनश्यति। (अर्थः) राजा के-नियोगियों के साथ वैर करनेवाला नृपाधिकारी मकर का द्वेष करने वाले जलचर की तरह
विनष्ट होता है। व्यापारी गणनालेख्ये शुद्धतां न करोति यः।
बन्धनं प्राप्नुयात्सोऽपि कोशकीट इवाऽऽत्मना॥१५३॥(२.६६) (अन्वयः) यः व्यापारी गणनालेख्ये शुद्धतां न करोति, सः कोशकीट इव आत्मना बन्धनं प्राप्नुयात्। (अर्थः) जो व्यापारी हिसाब में शुद्धता नही करता(रखता) है, वह कोशकीटक की तरह आत्मा के द्वारा
बंधन को प्राप्त करता है। [मूल स्वसेवावसरे राजनिकटं नित्यमावसेत्।
वेष्टयन्ति समीपस्थं प्रायो वल्लीनृपस्त्रियः॥१५४॥(२.६७) (अन्वयः) स्वसेवावसरे नित्यम् राजनिकटम् आवसेत्, प्रायः वल्लीनृपस्त्रियः समीपस्थं वेष्टयन्ति। (अर्थः) सेवा के अवसर में सदा राजा के समीप रहना चाहिए, बहुधा वल्ली, नृप और स्त्रियां पास में स्थित
को आलिंगन करती हैं। [मूल] विनावसरमन्तर्यो याति भूपतिमन्दिरे।
स करोत्यरुचिं धृष्टो वसन्तौ गुडो यथा॥१५५॥(२.६८) (अन्वयः) यः विना अवसरं भूपतिमन्दिरे अन्तः याति, धृष्टः सः यथा वसन्ततॊ गुडः (तथा) अरुचिं करोति। (अर्थः) जो अवसर के बिना राजा के महल में अंदर जाता है वह धृष्ट जैसे वसंत ऋतु में गुड अरुचि करता
है उसी प्रकार होता है। मूल) पार्थिवे मित्रता नास्ति निर्दये नास्ति धर्मता।
सलोभे गौरवं नास्ति सङ्ग्रामे नास्ति तत्त्रयम्॥१५६॥(२.६९) (अन्वयः) पार्थिवे मित्रता नास्ति, निर्दये धर्मता नास्ति, सलोभे गौरवं नास्ति, सङ्ग्रामे च तत्त्रयं नास्ति ।