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________________ प्रथमो धर्मतरङ्गः (अर्थः) दुर्लभ ऐसे मनुष्य जन्म को प्राप्त करके जो व्यसनों के द्वारा उसको यापित करता है, वह पर्वत के पत्थर की बुद्धि से मानो चिन्तामणिरत्न को ही त्याग देता है। [मूल] सम्पत्कुलबलैश्वर्यसुरूपत्वश्रुतादिषु। प्रकुर्वन् गर्वमचिराल्लघुतां याति मानवः॥५७॥(१.५७) (अन्वयः) मानवः सम्पत्कुलबलैश्वर्यसुरूपत्वश्रुतादिषु गर्वं प्रकुर्वन् लघुतां याति। (अर्थः) सम्पत्ति, उच्चकुल, बल, प्रभुत्व, अच्छे रूप और श्रुतादि ज्ञानों में गर्व करता हुआ मनुष्य शीघ्रता से अधमता को प्राप्त होता है। अथेन्द्रियाणि। [मूल] जेतव्यानीन्द्रियाण्यादौ नरेण नियतात्मना। उपेक्षितानि तान्याशु विघ्नन्ति व्याधिवत् सदा॥५८॥(१.५८) (अन्वयः) नियतात्मना नरेण आदौ इन्द्रियाणि जेतव्यानि, तानि उपेक्षितानि आशु व्याधिवत् सदा विघ्नन्ति। (अर्थः) संयमित आत्मा के द्वारा पहले इन्द्रियों को जितनी चाहिए। यदि उन इन्द्रियों की उपेक्षा की तो वे व्याधि की तरह सदा विनाश करती है। [मूल] मृगो मीनः करी भृङ्गः पतङ्गः पञ्च जातयः। शब्दादिलौल्यभावेन पञ्चत्वं यान्त्यशकिताः॥५९॥(१.५९) (अन्वयः) मृगो मीनः करी भृङ्गः पतङ्गः पञ्चजातयः शब्दादिलौल्यभावेन अशङ्किताः पञ्चत्वं यान्ति। (अर्थः) हरिण, मछली, हाथी, भ्रमर और पतङ्ग यह पांच जातिवाले शब्दादि के लोभ से निःशंक (ही) मृत्यु को प्राप्त होते है। [मूल] एकैकमप्यनर्थाय महते महतामपि। पञ्चापि यस्य बलवन्त्यसौ न क्षणमाश्वसेत्॥६०॥(१.६०) (अन्वयः) एकैकम् अपि महतां महते अनर्थाय। यस्य तु असौ पञ्चापि बलवन्ति स न क्षणम् आश्वसेत्। (अर्थः) एक एक भी बड़े से बड़े नाश के लिए कारण है, तो जिसके पास यह पांचों भी है उसकी क्षणभर भी स्थिति नहीं होगी। अथ गुरुः। [मूल] स्वधर्माचारनिरतः शास्रवेत्तार्थतत्त्ववित्। निर्णेता धर्मवाक्यानामक्रोधी विजितेन्द्रियः॥६१॥(१.६१) [मूल] लोभमोहविहीनश्च शिष्यवर्गकृपाकरः। स्पष्टार्थवक्ता सद्धर्मोपदेष्टा गुरुरुच्यते॥६२॥(१.६२) ॥युग्मम्॥
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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