SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमो धर्मतरङ्गः [मूल] सुवर्णं रौप्यमन्नं वा धातुभाण्डं तथा धनम्। परकीयं तृणाद्यन्यत् करेणाऽपि न संस्पृशेत्॥३६॥(१.३६) (अन्वयः) यत् मार्गे पतितं दृष्टम्, तथा वा अन्येन विस्मृतम्, निक्षेपस्थापितम् वा यत् च चौरैः अपहृतम्, परकीयम्, सुवर्णम्, रौप्यम्, अन्नम् धातुभाण्डम् वा, तथा धनम् तृणादि अन्यत् करेण अपि न संस्पृशेत्। (अर्थः) जो मार्ग में पड़ा हुआ देखा गया तथा दूसरों के द्वारा भुला हुआ, अमानत से रखा हुआ और जो चोरों के द्वारा अपरहरण किया हुआ परकीय सोना, चांदी, अन्न, या धातु का बर्तन वैसे हि धन, घास आदि अन्य(भी वस्तु) को हाथसे भी स्पर्श नहि करना चाहिए। [मूल] करनाशा(शं) पदच्छेदं ताडनं शीर्षकर्तनम्। प्राप्नुवन्त्यशुभं चौरास्तस्माच्चौर्यं परित्यजेत्॥३७॥(१.३७) (अन्वयः) करनाशं, पदच्छेदम्, ताडनम्, शीर्षकर्तनम् अशुभं चौराः प्राप्नुवन्ति, तस्मात् चौर्यं परित्यजेत्। (अर्थः) हाथों का नाश, पैरों में छेद, मारना, सिर काटना आदि अशुभता को चोर प्राप्त होते है। इसिलिए चोरी के कार्य का त्याग करें। अथ परस्रीपरिहरणम्। [मूल] अधर्ममूलं वैरस्य निदानं कलहास्पदम्। अयशोभाजनं धर्मतरोस्तीक्ष्णकुठारकम्॥३८॥(१.३८) [मूल इह निन्दाकरं प्रेत्य महारौरवदायकम्। मनसापि न कुर्वीत परस्रीगमनं बुधः॥३९॥(१.३९) (युग्मम्) (अन्वयः) बुधः मनसा अपि अधर्ममूलम्, वैरस्य निदानम्, कलहास्पदम्, अयशोभाजनम्, धर्मतरोस्तीक्ष्णकुठारकम्, इह निन्दाकरम्, प्रेत्य महारौरवदायकम्, परस्त्रीगमनं न कुर्वीत। (अर्थः) बुद्धिवानने मनसे भी अधर्म का मूल, वैर का कारण, कलह का स्थान, अयश का आधार, धर्मरूपी वृक्ष के लिए तीक्ष्ण कुल्हाडी समान, मरणोत्तर महान ऐसे रौरव नरक को देनेवाला, इहलोक में निन्दाकर ऐसा परस्त्रीगमन नहि करना चाहिए। [मूल] साभिलाषं परस्त्रीणामालोके सम्भवति(न्ति) हि। यावन्तो निमिषाः कल्पांस्तावन्तो नरके वसेत्॥४०॥(१.४०) (अन्वयः) परस्त्रीणां साभिलाषं आलोके हि यावन्तः निमिषाः सम्भवन्ति तावन्तः कल्पान् नरके वसेत्। (अर्थः) दूसरों के स्त्री को देखने में जितना का समय जाता है उतने कल्प नरक में रहना पडता है।
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy