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________________ बुद्धिसागरः [मूल] एतत् सत्यव्रतं नाम सङ्ग्रामः सत्यसङ्गरः। दिशत्यखिललोकस्य हितायामृतसम्मितम्॥३०॥(१.३०) (अन्वयः) एतत् अखिललोकस्य हिताय सत्यसङ्गरः सङ्ग्रामः नाम अमृतसम्मितं सत्यव्रतं दिशति। (अर्थः) सबलोक के हित के लिए सत्यनिष्ठ, संग्राम अमृत के समान सत्यव्रत का यह उपदेश देता है। [मूल] सत्या सुसंस्कृता वाणी वक्तृश्रोत्रोश्च मध्यगा। पुनाति परितः सर्वं गङ्गेवोभयकूलभाक्॥३१॥(१.३१) (अन्वयः) वक्तृश्रोत्रोः मध्यगा सत्या सुसंस्कृता च वाणी सर्वं परितः पुनाति, उभयकूलभाक् गंगा इव। (अर्थः) सत्य, सुसंस्कृत वक्ता और श्रोता इनके बिच में बहनेवाली ऐसी वाणी सब ओर से पावन करती है, _जैसे गंगा दो किनारे को पावन करती है। [मूल] नास्ति सत्यात्परा भूषा नास्ति सत्यात्परं यशः। नास्ति सत्यात्परं चित्तं तस्मात्सत्यं न सन्त्यजेत्॥३२॥ (१.३२) (अन्वयः) सत्यात् परा भूषा नास्ति, सत्यात्परं यशः नास्ति, सत्यात्परं चित्तं नास्ति, तस्मात् सत्यं न सन्त्यजेत्। (अर्थः) सत्य से श्रेष्ठ अलंकार नहि है। सत्य से श्रेष्ठ यश(कीर्ति) नहि है। सत्य से श्रेष्ठ चित्त नहि है। इसिलिए सत्य का त्याग नहि करना चाहिए। कन्याप्रदाने शपथे साक्षिवादे सभासु च। असत्यं प्रवदन्मोहाज्जीवन्निरयमश्नुते॥३३॥(१.३३) (अन्वयः) कन्याप्रदाने, शपथे, साक्षिवादे, सभासु च मोहात् असत्यं प्रवदन् जीवन निरयं अश्नुते। (अर्थः) कन्यादान में, शपथ लेते समय, साक्षि देते समय और सभा में मोह से असत्य को बोलता हुआ जीव जीतेजी नरक को प्राप्त होता है। अथ परद्रव्यपरिहारः। [मूल] अज्ञानादथवा लोभात् परिहासाच्छलादपि। परद्रव्यापहरणं न कार्यमतिगर्हितम्॥३४॥(१.३४) (अन्वयः) अज्ञानात्, लोभात्, परिहासात्, अथवा छलात् अपि अतिगर्हितम्, परद्रव्यापहरणम्, न कार्यम्। (अर्थः) अज्ञान से, लोभ से, मजाक से, अथवा छल से भी अतिशय निन्दनीय ऐसा दूसरों के द्रव्य का अपहरण न करें। [मूल] मार्गे यत्पतितं दृष्टं तथैवान्येन विस्मृतम्। निक्षेपस्थापितं वापि चौरैरपहृतं च यत्॥३५॥(१.३५)
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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