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किमती वस्त्र इनाम देते हुए अपने महल का कामदार नियुक्त किया। बादशाह ने उसे नकद-उल-मुल्क की पदवी भी दी। उपरांत 'जगतविश्राम' बिरुद भी दिया।
श्री और सरस्वती के साथ उस पर सत्ता की कृपा भी पूरी उतरी। वह स्वयं तपगच्छ की वृद्ध पोशाल के आचार्य रत्नसिंहसूरि के पट्टघर पूर्व में भट्टारक आचार्य उदयवल्लभसूरि का श्रावक था।
इस्वी १४६२ में वि.सं. १५१८ के जेठ सुद १५ के दिन उसने भगवान अजितनाथ की परिकरवाली जिन प्रतिमा निर्मित की और उसे तपगच्छ की बडी पोशाल के आचार्य रत्नसिंहसूरिजी के पट्टधर आचार्य श्री उदयवल्लभसूरि के हाथों प्रतिष्ठा करवायी। इस प्रतिमा के नीचे के हिस्से में वस्त्रपट्ट है उसके नीचे सो. संग्राम नाम उत्कीर्ण है। मूलनायक भगवान की दोनों और भगवान अजितनाथ की मूर्तियां है। उज्जैन स्थित देश खडकी मोहल्ले में भगवान चन्द्रप्रभ स्वामी का श्वेतांबर जैन मंदिर है। उसमें भगवान अजितनाथ की श्वेत पाषाण की जो प्रतिमा बिराजमान है, उस की गादी के पिछले हिस्से में उपर्युक्त मतलब की लिखावट है।
सोनी संग्रामसिंह उन दिनों के प्रौढ प्रतिभाशाली एवं महाप्रभावक आचार्य सोमसुंदरसूरिजी के प्रति प्रगाढ आस्था रखते हुए उनकी आज्ञा पालन को अपने जीवन का श्रेष्ठ कर्तव्य समझते थे। उन्होंने मांडव में इस्वी १४७२ में भगवान सुपार्श्वनाथ का जिनप्रासाद बनवाया था। (आज भी 'मांडवगढनो राजियो नामे देव सुपास' यह पंक्ति सुप्रसिद्ध है।) ____मक्षीजी तीर्थ में संग्रामसोनी ने पार्श्वनाथ भगवान को समर्पित जिनप्रासाद बनवाया। वि.सं. १५१८ के जेठ सुद १५, गुरुवार का दिन मक्षीजी तीर्थ की सालगिरह के दिन के रूप में प्रसिद्ध है। इसके अलावा वाई, मंदसौर ब्रह्ममंडल, सामलिया (सेमालीया) धार, नगर, खेडी, चंडाउली वगेरे १६ स्थानों में १७ बडे बडे जिन मंदिर बनवाये और अनेक धर्मकार्य किये।
संग्रामसिंह को श्रुत के प्रति भी अगाध भक्ति थी। उसने वि.सं. १४७०(इस्वी १४१४) में तपगच्छ गगन में सूर्य समान आचार्य सोमसुंदरसूरिजी को मांडवगढ में चातुर्मास करवाया। उस चातुर्मास में उसने उनके श्रीमुख से भगवतीसूत्र का सटीक श्रवण किया। भगवतीसूत्र में जगह जगह 'गोयमा' यह शब्द कुल मिलाकर ३६ हजार बार आता है, जब जब 'गोयमा' शब्द आया तब उस वक्त संग्राम सोनी ने एक सोनामुहर, उसकी माता ने आधी सोनामुहर, उसकी पत्नी के एक चौथाई (पावभर) सुवर्णमुद्रा रखकर उस परम पावन शब्द के प्रति अपना बहुमान व्यक्त किया। ३६+१८+९ कुल ६३ हजार सोनामुहरें आचार्य भगवंत के चरणों में रखते हुए उन्हें स्वीकार करने की विनती की। आचार्यश्री ने 'साधु पैसों का परिग्रह नही रखते' कहकर इस राशि का उपयोग शास्त्र-आगमग्रंथ लिखवाने में करने की प्रेरणा दी। सोनी संग्रामसिंह ने उस तमाम राशि का उपयोग करते हुए सोने-रुपे की स्याही से सचित्र कल्पसूत्र और कालिकाचार्य कथा की कई प्रतियां करवायी। आचार्य भगवंत के साथ के तमाम मुनिओं को एक-एक प्रति अर्पण की। और अन्य संघों के ज्ञान भंडार में भी अलग अलग जगह पर प्रतियां सुरक्षित रखी।
मांडवगढ में वैसे भी अनेक सोनी परिवार बसे हुए थे। वि.सं. १५४३ मे वहां सोनी मांडण, सोनी नागराज,