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________________ (२२) चले। समृद्ध होने के साथ साथ उन्होने राज्यसत्ता में भी अपना सिक्का जमाया। राजाओं के साथ वे उनके मजबूत रिश्तों ने समाज-धर्म और संस्कृति को कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान की और प्रगति भी दी। बाद में तो अनेक सोनी परिवार गुजरात के अलग अलग गांवों से आकर मांडवगढ में बसने लगे। उसका पुत्र पद्मराज हुआ, उसका पुत्र सूर हुआ, उसका पुत्र धर्मसेन हुआ और उसके बाद वरसिंह हुआ। वरसिंह के नरदेव और धन(देव) नाम के दो पुत्र हुए। धनसिंह ने चंद्रपुरी में बहुत धन देकर लाखों लोगों को शकों के संकट से बचाया था। नरदेव (नारिया) ज्येष्ठ पुत्र था, उसकी सोनाई नामकी पत्नी थी। मांडव में बादशाह हुसंगसेन के दरबार में उसका बडा रुतबा था, मान-सन्मान था। वह दानी और उदार था। उसका यश चौतरफ फैल रहा था। उसने मांडव में एक सत्रागार सा बनाया था वहां पर सभी आगतुंकों को तरह तरह की वस्तुएं प्रदान की जाती थी। उसके बारे में एक उल्लेख यह भी मिलता है कि: खंभात के रहनेवाले सोनी नारिया (नरेदव) के पुत्र पद्मसिंह की पत्नी आल्हगदेवी ने वि.सं. १४३८ में भादरवा सुद ७ के दिन तपागच्छ के आचार्य देवेन्द्रसूरिजी उनके पट्टधर आचार्य सोमसुंदरसूरिजी, आचार्य मुनिसुंदरसूरिजी आचार्य जयचन्द्रसूरिजी, आचार्य भुवनसुंदरसूरिजी के उपदेश से जीरावला पार्श्वनाथ भगवान के जिनप्रासाद की चौकी का शिखर करवाया था। __उसका एक पुत्र था संग्रामसिंह। जो संग्राम सोनी के नाम से इतिहास में जाना गया। वह कुछ समय के लिए व्यापार हेतु या अन्य कारणों से गुजरात के तत्कालीन वढियार इलाके के लोलाडा (वर्तमान में सुप्रसिद्ध तीर्थ शंखेश्वर के समीप का गांव) में जाकर रहने के पश्चात् वह मांडवगढ में आकर बसा। उस वक्त मालवा में १. ढिल्यामल्लावदीने नरपतितिलके रक्षति क्ष्मामधीशे,सोनीश्रीसाङ्गणाख्यः समभवददितश्रीलसत्कीर्तिपूरः। तत्पुत्रः पद्मराजः प्रथितगुणगणस्तत्सुतः सूरसञस्तत्सुनुर्धर्मनामा तदनु च वरसिङ्घोऽभवत् सत्यशीलः॥४०४॥ (बुद्धिसागर) २. नरदेवधनाख्यौ च तत्पुत्रौ द्वौ बभूवतुः। ओसवालकुलोत्तंसौ दीनानाथकृपाकरौ॥४०५॥(बुद्धिसागर) ३. वर्तमान में चांडक, जो आबू की तलहटी में विमलमंत्री ने बसाई थी। जिसमें ३६० मंदिर थे। ४. चन्द्रपुर्यां धनाख्येन वितीर्य विपुलं धनम्। मोचिताः शकसङ्कष्टान्नराः शतसहस्रशः॥४०६॥ (बुद्धिसागर) ५. सन् १४०५ में दिलावर खां का पुत्र अलप खां-होशंग खां घोरी के नाम से सत्ता में आया। उसने मांडवगढ (हाल-मांडू) को अपनी राजधानी बनाई। सन् १४३५ में होशंग खां का निधन हो गया। ६. तज्ज्येष्ठो नरदेव एव समभूत् ख्यातः क्षितौ मण्डपे, सत्रागारकरः सदोद्यतकरः सत्पात्रदः सर्वदः। हूसङ्गक्षितिपालसंसदि सतां मान्यः परार्थैककृद्भाण्डागारधुरन्धरः स च परस्त्रीसोदरः सुन्दरः॥४०७।। (बुद्धिसागर) ७. जयत्ययं सम्प्रति तत्तनूजः सङ्ग्रामसिंहः सततं दयालुः। परोपकारैककरः सुशीलः सौजन्यसिन्धुर्जिनभक्तियुक्तः॥४०८।। (बुद्धिसागर) ८. चौदहवी और पंद्रहवी शताब्दी में मुगल राज्यकाल दौरान मालवा भौगोलिक एवं सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण देश था। नर्मदा और तापी नदी के बीच दक्षिण साम्राज्य का उत्तरपश्चिम भाग मालवा की सीमा में था। गुजरात से उत्तरभारत जानेवाला रास्ता और दक्षिणभारत से उत्तरभारत जानेवाला रस्ता मालवा से ही गुजरता था। इसी कारण किसी भी साम्राज्य के लिए मालवा को जितना महत्त्वपूर्ण था। मालवा का राजा उत्तरभारत के साम्राज्य के लिये एवं पूर्व पश्चिम और दक्षिणभारत के लिये भी महत्त्व रखता था। मालवा जब तक सशक्त था तब तक गुजरात, मेवाड और दिल्ली के लोदी राजाओं के साम्राज्य विस्तार की भावना में अंतराय था आंतरिक झगडों के कारण इ.स. १३०५ में मालवाने अल्लाउद्दीन खीलजी को हस्तक्षेप करने की प्रार्थना की तब से लेकर १४०१ तक वह दिल्ली के आधीन रहा। मालवा के बहुतांश शासक हिंदुओं के विरोधी रहे। हिंदुधर्म के प्रति असहिष्णु रहे। महम्मद-खान-खीलजी (१४३६-१४६९, सं १४९२-१५२५) मालवा का सबसे शक्तिशाली शासक रहा। उसने बहोत सारे मंदिरों का नाश किया। वह अपने पडोसी राज्यों के साथ लडता रहा। उसका सबसे अधिक समय मेवाड के राणा कुंभा के साथ लडाइ करने में बीता। Ref.1) History discussion.net, Rising of independent states during 14th 15th century Ref.2) Maharashtra state gazetteers' general series 1.5 Yr. 1972, Director-Government print stationary and publicaction. Pg.54,56,494
SR No.007785
Book TitleBuddhisagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangramsinh Soni
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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