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संग्राम सोनी'
संग्राम सोनी यह नाम जैन इतिहास में सुप्रसिद्ध है, अमर है। देशभक्ति, राज्यनिष्ठा, लोकसेवा, साधर्मिक भक्ति, श्रुतभक्ति और जिनभक्ति व गुरु उपासना की जब बात निकलती तो अनेक नामों के बीच एक नाम उभरता है संग्राम सोनी का ।
संग्राम सोनी के पूर्वजों में सांगण सोनी का नाम प्राप्त होता है। वे खंभात के रहनेवाले ओशवाल वंश के शिरोमणी श्रावक माने जाते थे। १४ वीं सदी के आरंभ में खंभात जब जैन परंपरा का समृद्ध केन्द्र बन चुका था। तब वहां उस समय के समर्थ जैनाचार्य देवेन्द्रसूरिजी और आचार्य विजयचन्द्रसूरिजी के बीच कुछ सैद्धांतिक बातो को लेकर मतभेद पनपने लगे... बढने लगे तब सांगण सेठ ने इन दोनों श्रमण शाखा में सही और सार्थक शाखा कौन सी है? इस बात को लेकर पशोपश रही। अपने मन की उलझन को सुलझाने के लिए उन्होने अट्ठम तप करके अधिष्ठायक देव का जाप-ध्यान किया। शासनदेव ने आकर बताया कि 'सांगण, आचार्य श्री देवेन्द्रसूरि वर्तमान युग के समर्थ व उत्तम श्रमण महात्मा है। उनका गच्छ - उनकी परंपरा काफी लम्बे अरसे तक चलेगी। इसलिए तुम उनकी उपासना करना।' फिर सांगण और उसका परिवार, उसके स्वजन सभी आचार्य देवेन्द्रसूरिजी की सेवा में समर्पित हो गये। उन्हें रहने के लिए वसति स्थान दिये, श्रमण आचार के अनुकूल सुविधाएं जुटायी। तभी से आचार्य देवेन्द्रसूरिजी की परंपरा 'तपगच्छ की लघु पोशाल' के रूप में प्रसिद्ध हुई। इसके बारे में गुर्वावली के श्लोक १३८ / १३९ से जानकारी प्राप्त होती है।
सोनी सांगण यशस्वी था, संपन्न था और सूझबूझ का धनी था । किन्ही कारणों से वि.सं. १३५४, इस्वी १२९८ में सांगण ने खंभात छोडा और मालवांचल के मांडवगढ में आकर रहे। दिल्ही में उस समय (इस्वीसन १२९८ से १३१६) अलाउद्दीन खिलजी का राज्य था। बाद में मांडवगढ में सोनी परिवार बसते चले और बढते
१. जैन परंपरानो इतिहास भागः ३ से संकलित- संकलन एवं संवर्द्धनः भद्रबाहु विजय
२. अलाउद्दीन खिल्जी दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश का दूसरा शासक था। उसने अपना साम्राज्य दक्षिण में मदुरै तक फैला दिया था। अलाउद्दीन ख़िलजी के बचपन का नाम अली 'गुरशास्प' था। जलालुद्दीन ख़िलजी के तख्त पर बैठने के बाद उसे 'अमीर-ए-तुजुक' का पद मिला। मलिक छज्जू के विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण जलालुद्दीन ने उसे कड़ा-मनिकपुर की सूबेदारी सौंप दी। भिलसा, चंदेरी एवं देवगिरि के सफल अभियानों से प्राप्त अपार धन ने उसकी स्थिति और मज़बूत कर दी। इस प्रकार उत्कर्ष पर पहुँचे अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या 22 अक्टूबर 1296 को कर दी और दिल्ली में स्थित बलबन के लाल महल में अपना राज्याभिषेक सम्पन्न करवाया।
मालवा पर शासन करने वाला महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द (कोका प्रधान) बहादुर योद्धा थे। 1305 ई. में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार आईन-उल-मुल्क के नेतृत्व में एक सेना को मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों के संघर्ष में महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द मारा गया। नवम्बर, 1305 में किले पर अधिकार के साथ ही उज्जैन, धारानगरी, चंदेरी आदि को जीत कर मालवा समेत दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। जलोदर रोग से ग्रसित अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपना अन्तिम समय अत्यन्त कठिनाईयों में व्यतीत किया और 5 जनवरी 1316 ई. को वह मृत्यु को प्राप्त हो गया।
खिलजीकालीन भारत (गूगल पुस्तक ; लेखक - सैयद अब्बास रिजबवी)