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________________ www.vitragvani.com 68] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 अर्थात् द्रव्य-गुण-पर्याय की ऐसी एकता हो जाती है कि ध्याताध्येय का भेद भी वहाँ नहीं रहता; आत्मा अपने आप में लीन होकर अपना स्वानुभव करता है। वहाँ स्वानुभव के परम आनन्द का भोगना है परन्तु उसका विकल्प नहीं है। एक बार ऐसा निर्विकल्प अनुभव जिसके हुआ हो, उसके ही निश्चयसम्यक्त्व है-ऐसा जानना। ऐसे अनुभव की रीति यहाँ दिखलाते हैं। यहाँ सम्यग्दृष्टि जिस प्रकार से निर्विकल्प-अनुभव करता है, यह दिखाया है। इसके उदाहरण के अनुसार दूसरे जीवों को भी निर्विकल्प-अनुभव करने का यही उपाय है-ऐसा समझ लेना। ___ 'वह सम्यग्दृष्टि कदाचित् स्वरूपध्यान करने का उद्यमी होता है'-चौथे गुणस्थान में सम्यग्दृष्टि को बार-बार निर्विकल्पध्यान नहीं होता, परन्तु कभी-कभी शुभाशुभप्रवृत्ति से दूर होकर, शान्तपरिणाम से स्वरूप का ध्यान करने का उद्यमी होता है। जिस स्वरूप का अपूर्व स्वाद स्वानुभव में चखा है, उसी का फिर-फिर अनुभवन करने के लिये वह उद्यम करता है। तब प्रथम तो स्वपर के स्वरूप का भेदविज्ञान करे, अर्थात् पहले जो भेदज्ञान किया है, उसी को फिर से चिन्तन में लावे; यह स्थूल देहादि तो मेरे से स्पष्टतः भिन्न हैं, इसके कारणरूप जो भीतर के सूक्ष्म द्रव्यकर्म, वह भी आत्मस्वरूप से अत्यन्त भिन्न हैं, दोनों की जाति ही भिन्न है। मैं चैतन्य और वह जड़, मैं परमात्मा और वह परमाणु-ऐसे दोनों की भिन्नता है और भिन्नता होने से कर्म मेरा कुछ नहीं करता। अब अन्दर में, आत्मा की पर्याय में उत्पन्न होनेवाले राग -द्वेष-क्रोधादि भावकर्म, से भी मेरा स्वरूप अत्यन्त भिन्न है; मेरे Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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