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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
में जो ज्ञान काम नहीं आता, उसमें जिसे विपरीतता होती है, वह मिथ्याज्ञान है। ___ जगत् में सबसे मूल प्रयोजनभूत वस्तु, शुद्धात्मा है; उसे जानने से स्व-पर सबका सम्यग्ज्ञान हुआ; इसलिए श्रीमद राजचन्द्रजी ने कहा है कि 'जिसने आत्मा जाना, उसने सर्व जाना।' और 'अनन्त काल से जो ज्ञान भव हेतु होता था, उस ज्ञान को एक समयमात्र में जात्यान्तर करके जिसने भव निवृत्तिरूप किया, उस कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शन को नमस्कार।' ऐसे सम्यग्दर्शन बिना समस्त ज्ञान और समस्त आचरण व्यर्थ है। अन्तर्मुख निर्विकल्प उपयोगपूर्वक सम्यग्ज्ञान होने के पश्चात् समकिती को ज्ञान का उपयोग स्व में हो या पर में हो, तब भी सम्यक्त्व ऐसा का ऐसा प्रवर्तता है।
यहाँ तो कहते हैं कि समकिती कदाचित् डोरी को सर्प समझ जाये, इत्यादि प्रकार से बाहर के अप्रयोजनरूप पदार्थ अन्यथा ज्ञात हो जाये, तथापि उसका ज्ञान, सम्यग्ज्ञान ही है क्योंकि उसमें कहीं आत्मा के स्वरूपसम्बन्धी भूल नहीं है परन्तु वह तो उस प्रकार के बाहर के क्षयोपशम का अभाव है; ज्ञानावरण के उदयजन्य अज्ञानभाव जो बारहवें गुणस्थान तक होता है, उस अपेक्षा से उसे 'अज्ञान' भले कहा जाये परन्तु मोक्षमार्ग साधने में या न साधने की अपेक्षा से (अर्थात् आत्मा का सच्चा स्वरूप जानने या न जानने की अपेक्षा से) जो सम्यग्ज्ञान या मिथ्याज्ञान कहलाता है, उसमें तो समकिती को सब सम्यग्ज्ञान ही है, उसे मिथ्याज्ञान नहीं है। उसे डोरी को डोरी न जानने से सर्प की कल्पना हो गयी तो कहीं इससे उसके ज्ञान में स्व-पर की एकत्वबुद्धि या रागादि परभावों में तन्मय बुद्धि नहीं हो जाती; इसलिए उसका ज्ञान, मिथ्या नहीं
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