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________________ www.vitragvani.com 52] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 को पाकर अल्प काल में मोक्ष पाते हैं। ऐसे अध्यात्मरसिक जीव हमेशा विरले ही होते हैं । सम्यग्दृष्टि के भावों की पहिचान जगत को बहुत दुर्लभ है। __यहाँ यह बात समझाते हैं कि शुभ-अशुभ में उपयोग वर्तता हो, तब सम्यक्त्व का अस्तित्व किस प्रकार होता है ?-हे भाई! समकित, वह कहीं उपयोग नहीं; समकित तो प्रतीति है। शुभाशुभ में उपयोग वर्तता हो, तब भी शुद्धात्मा का अन्तरङ्ग श्रद्धान तो धर्मी को ऐसा का ऐसा वर्तता है। स्व-पर का जो भेदविज्ञान हुआ है, वह तो उस समय भी वर्त ही रहा है। ये शुभ-अशुभ मेरा स्वभाव नहीं; मैं तो शुद्धचैतन्यभाव ही हूँ-ऐसी निश्चय अन्तरङ्गश्रद्धा धर्मी को शुभअशुभ के समय भी हटती नहीं है। जैसे गुमास्ता, सेठ के कार्यों में प्रवर्तता है, नफा-नुकसान होने पर हर्ष-विषाद भी पाता है, तथापि अन्तर में भान है कि नफा-नुकसान का स्वामी मैं नहीं। यदि सेठ की सम्पत्ति को वास्तव में अपनी मान ले तो वह चोर कहलाता है; इसी प्रकार धर्मात्मा का उपयोग, शुभ-अशुभ में भी जाता है, शुभअशुभरूप परिणमता है; तथापि अन्तर में उसी समय उसे श्रद्धान है कि ये कार्य मेरे नहीं, इनका स्वामी मैं नहीं; शुद्ध उपयोग के समय जैसी प्रतीति वर्तती थी, शुभ-अशुभ उपयोग के समय भी वैसी ही प्रतीति शुद्धात्मा की वर्तती है; इसलिए उसे शुभ-अशुभ के समय भी सम्यक्त्व में बाधा नहीं आती। यदि परभावों को अपने चेतनभाव के साथ मिलावे या देहादि परद्रव्य की क्रिया को अपनी माने तो तत्त्वश्रद्धान में विपरीतता होती है; इसलिए मिथ्यात्व होता है। तथा, निर्विकल्पता के समय निश्चयसम्यक्त्व और सविकल्पता Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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