SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com 42] [ सम्यग्दर्शन : भाग-6 जो ज्ञानस्वभाव का आश्रय लेकर कार्य करता है, उसकी महानता के समक्ष शास्त्र के अवलम्बनरूप धारणा की महत्ता नहीं रहती। जिसे अन्य ज्ञातृत्व की महत्ता भासित होती है, वह जीव निजस्वभाव को जानने की ओर का बल कहाँ से लायेगा ? उसके तो बाह्य ज्ञातृत्व की महत्ता वर्तती है। वर्तमान ज्ञान अन्तरङ्ग ज्ञानस्वभाव में उतर जाये - उसका सच्चा मूल्य है । उस पर्याय में अनन्त चमत्कारिक शक्ति है... वह राग से सर्वथा भिन्न होकर चैतन्य के अनन्त गुणों की गुफा में प्रविष्ट हो गयी है । वह पर्याय अपनी वर्तमान अगाध शक्ति को जानती है, तथा भविष्य की उसउस पर्याय में स्वभाव के अवलम्बन से जो अगाध शक्ति है, उसका भी विश्वास उसे वर्तमान में आ गया है । भले ही अमुक क्षेत्र में या अमुक समय में केवलज्ञानादि होंगे- ऐसा भिन्न करके वह न जाने परन्तु स्वभाव के अवलम्बन से उसे प्रतीति हो गयी है कि जैसे वर्तमान में मेरी स्वसन्मुख पर्याय, राग से भिन्न रहकर अतीन्द्रिय-स्वभाव के आश्रय से महान आनन्दमय कार्य कर रही है, उसी प्रकार भविष्य में भी वह पर्याय अपने अतीन्द्रियस्वभाव का अवलम्बन लेकर अचिन्त्य - चमत्कारिक शक्ति से केवलज्ञानादि कार्य करेगी। ऐसे स्वभाव का अवलम्बन मुझे वर्त ही रहा है, तो फिर‘अधिक जानूँ’—ऐसी आकुलता का क्या काम है ? सर्व को जानने के सामर्थ्यवाला जो सर्वज्ञस्वभाव, उसी का अवलम्बन लेकरी पर्याय ज्ञानरूप परिणमित हो रही है, वहाँ लोकालोक को जानने की आकुलता नहीं रहती; स्वसन्मुखी ज्ञान में परम धैर्य है, आनन्द की लहर है। अनेक अङ्ग-पूर्व जान लूँ तो मुझे अधिक आनन्द हो - ऐसा Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy