________________
www.vitragvani.com
24]
[सम्यग्दर्शन : भाग-6
। सम्यक्त्व महिमा
हे वत्स! तू परम भक्ति से सम्यक्त्व को भज श्री सकलकीर्ति-श्रावकाचार के ग्यारहवें अध्याय में अष्टगुण -सहित और सर्व दोषरहित, ऐसे शुद्ध सम्यक्त्व की परम महिमा बतलाकर, उसकी आराधना का उपदेश दिया है। उसमें 108 श्लोक हैं, उनका दोहन यहाँ दिया है।
* जो मूढजीव वीतराग जिनमार्ग का सेवन छोड़कर मिथ्यामार्ग के सेवन द्वारा आत्मकल्याण को चाहता है, वह जीवित रहने के लिये जहर खानेवाले जैसा मूर्ख है।
* बुधजन अल्प ज्ञान पाकर उसका मद नहीं करते; अरे! पूर्व के महान श्रुतधरों के समक्ष मेरा यह अल्प ज्ञान किस हिसाब में है?
* अरे! क्षणभर में नष्ट हो जानेवाले ऐसे इस शरीर बल का अभिमान क्या?
*विचित्र अद्भुत सम्यग्दर्शन-कला के समक्ष लौकिक सुन्दर लेखनादि कला का अभिमान करना, वह भी अशुभ है।
* जैसे मलिन दर्पण में मुख दिखायी नहीं देता; उसी प्रकार मोह से मलिन मिथ्याश्रद्धा में आत्मा का सच्चा रूप दिखायी नहीं देता, मुक्ति का मुख उसमें दिखायी नहीं देता।
* जैसे निर्मल दर्पण में मनुष्य अपने रूप को अवलोकन करते हैं; इसी प्रकार सम्यक्त्वरूपी निर्मल दर्पण में धर्मी जीव, मुक्ति का मुख देखते हैं, अर्थात् अपना सच्चा रूप देखते हैं।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.