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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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आप ही मुझे उसका सच्चा मार्ग बतलायेंगे।' इस प्रकार गुरु पर विश्वस्त होकर शिष्य ने पूछा। तब गुरु उस सच्चे जिज्ञासु को कुछ भी बात गोप्य रखे बिना ऐसा तत्त्व समझाते हैं कि जो समझने से जीव को अवश्य अपूर्व शान्ति प्राप्त हो। __ उसे सुनकर शिष्य न्याय और युक्ति से आत्मा के स्वरूप के बारे में विचारता है और गुरु के बताये अनुसार अन्तर के वेदन में शान्ति की खोज करता है। उसे गृहीतमिथ्यात्व छूट गया है, अर्थात् वह अब विपरीत मार्ग पर नहीं जाता; वह जिनमार्गानुसार नवतत्त्व का श्रद्धान करता है; जड़ और चेतन का भेदज्ञान करता है। चैतन्यभाव और रागभाव की भिन्नता का गहरा चिन्तन करता है; द्रव्यकर्मभावकर्म-नोकर्म रहित ऐसे शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को लक्ष्य में लेता है; उसमें उसकी शान्ति दृश्यमान होती है, इसलिए उसे आत्मा की ही धुन लगी है; और अन्य सभी से उदासीनता बढ़ती जाती है। बार-बार आत्मा का स्मरण-चिन्तन करके परिणाम को शान्त करता जाता है। देव-गुरु को देखकर उनकी अतीन्द्रिय शान्ति को लक्ष्यगत करता जाता है। शास्त्र में से भी शान्तरस को ही पुष्ट करता जाता है; इस प्रकार उसे देव-गुरु-शास्त्र की ओर उत्साह भी बढ़ता जाता है और उनमें अधिकाधिक गहराई दृश्यमान होती है। आत्मरस ऐसा मधुर मालूम होता है कि संसार का महान प्रलोभन भी उसे आत्मरस से च्युत नहीं कर सकता। कैसे भी प्रतिकूल संयोग आ पड़ें, फिर भी कषाय का रस बढ़ाये बिना वह समाधान कर लेता है। संसार के मिथ्या सुखों के पीछे अब यह पागल नहीं होता, भीतर से उनका रस छूट गया है, इसलिए उनके लिये तीव्र आरम्भ-समारम्भ या अनीति-अन्याय भी वह नहीं
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