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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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है, बीच में होनेवाला राग, वह कुछ साधन नहीं है। ऐसे सत्य साधन के द्वारा जो अपने आत्मा का हित करना चाहे, वह कर सकता है, परन्तु जीव ने अनादि काल से अपने हित की परवाह ही नहीं की। हे भाई! तू स्वयं कौन वस्तु है ? यह जाने बिना तू सुख कहाँ से लायेगा? और सम्यग्दर्शन किसका करेगा? प्रथम तो यह निर्णय कर ले कि मैं तो ज्ञानस्वभावी ही हूँ। देह या रागस्वरूप मैं नहीं हूँ। ऐसा निर्णय करते ही तेरा लक्ष्य अपने आत्मा की ओर जायेगा और तेरा निधान तुझे अपने में ही दिखेगा। भगवान महावीर के सन्देशरूप जो सम्यग्दर्शन-वह तुझे प्रगट होगा। ___ इन्द्रिय और मन के साथ संलग्न जो उपयोग है, वह आत्मा को प्रसिद्ध नहीं कर सकता; वह मात्र पर को ही प्रसिद्ध करता है। मन
और इन्द्रियों से विमुख होकर, आत्मा में अन्तर्मुख होनेवाला उपयोग ही भगवान आत्मा को प्रसिद्ध करता है... सच्चे स्वरूप में उसका दर्शन (सम्यग्दर्शन) कर लेता है। यही आत्म-अनुभूति है, यही भगवान महावीर का सन्देश है। इसके ही द्वारा भव का अन्त आता है और मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। किसी भी शुभराग से वह शक्य नहीं। सम्यग्दर्शन तो आत्मा का सहज स्वभाव है। अन्य किसी का अवलम्बन उसमें नहीं है।
शुभ-अशुभभाव तो अज्ञानी जीव भी अनादि काल से करता आया है; वह कहीं धर्म का उपाय नहीं है या उससे भव का अन्त नहीं होता। परन्तु उस शुभ-अशुभभाव से रहित ज्ञानस्वभावी आत्मा की पहिचान करना ही धर्म का उपाय है और इसके द्वारा ही भव का अन्त होता है।
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