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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [165 मैं ज्ञानस्वभावी ज्ञाता हूँ। ज्ञेय में कहीं भी राग-द्वेष करके अटकना, ऐसा मेरा ज्ञानस्वभाव नहीं है। परवस्तु चाहे जैसी हो, मैं तो उसका केवल जाननेवाला हूँ। मेरा ज्ञातास्वभाव, पर का कुछ भी करनेवाला नहीं है। ज्ञानस्वभाव के साथ मुझमें श्रद्धा-शान्ति -आनन्द आदि अनन्त स्वभाव हैं । जिस प्रकार मैं ज्ञानस्वभावी हूँ, वैसे जगत के सभी आत्मायें ज्ञानस्वभावी हैं। उसमें वे स्वयं अपने ज्ञानस्वभाव का निर्णय करके ज्ञानभावरूप परिणमें, तभी उसका दु:ख दूर हो और वे सुखी हों। परजीवों का दु:ख मिटानेवाला कोई नहीं है क्योंकि उन्होंने स्वयं अपनी ही भूल से दुःख उत्पन्न किया है, और यदि वे अपनी भूल को दूर करें तो उनका दु:ख दूर हो। किसी पर के लक्ष्य से रुकने का ज्ञान का स्वभाव नहीं है। __ अरे जीव! अब तक अपने सुख को भूलकर तूने पर में सुख माना; तेरी भ्रमणा से ही तू भूला और दुःखी हुआ। अरे, स्वपद को दुर्गम और परपद को सुगम मानकर स्वपद की अरुचि की, और परपद को अच्छा मानकर, उसको अपना बनाने की व्यर्थ चेष्टा करते-करते दु:खी हुआ। परवस्तु तो कभी आत्मा की नहीं होती। चैतन्यमय स्वपद है। बार-बार उस स्वपद का परिचय करने से वह सहज सुगम और सुन्दर मालूम होता है। बार-बार उसकी भावना करने में आनन्द होता है। चैतन्यपद स्वयं आनन्दरूप हैऐसा जानकर बारबार उसकी भावना करो। शुद्ध चैतन्यमय मेरा स्वपद है-ऐसी आत्मभावना में प्रवर्तित मुमुक्षु जीव, जगत की किसी भी प्रतिकूलता से भयभीत नहीं होता; आत्मा को सबसे अलग करके ज्ञानस्वभाव का निर्णय करता है। अहा! अनन्त सुख का धाम मेरा चैतन्यतत्त्व है-उसे वेदन मैं किस प्रकार करूँ? Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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