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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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इसी प्रकार ज्ञानी, मन्दिर में हो, जिनदेव का पूजन करता हो, उस समय भी उसकी ज्ञानचेतना उस शुभराग से भिन्न ही वीतरागी कार्य करती-करती मोक्ष की साधना कर रही है। अतः राग के समय भी उसे मोक्षमार्ग प्रवर्तमान है। राग स्वयं कदापि मोक्षमार्ग नहीं है, परन्तु उस समय जो ज्ञानचेतना और सम्यक्त्वादि भाव जीवन्त हैं, वही मोक्षमार्ग है। वाह ! धन्य है मोक्ष का पथिक! धन्य उसके अतीन्द्रिय भाव!! ___ अहो! ज्ञानी की इस दशा का विचार करने पर, मुमुक्षु की विचारधारा राग से अलग होकर चैतन्य की ओर झुकने लगती है... इसके बाद क्या होता है?—उसकी राग और ज्ञान की भिन्नता का वेदन होकर, ज्ञान की अनुभूति होती है; और इसके बाद उसी की अनुभूति करते-करते, संसार से छूटकर वह मुक्त होता है। तत्त्वज्ञ श्रीमद् राजचन्द्रजी इस बात का सबूत देते हैं कि
जब प्रगटे सुविचारणा, तब प्रगटे निज ज्ञान। उसी ज्ञान से मोहक्षय, होता पद निर्वाण॥
एक क्षणभर के स्वानुभव से ज्ञानी के जो कर्म टूटते हैं, अज्ञानी के लाख उपाय करने पर भी इतने कर्म नहीं टूटते। सम्यक्त्व और स्वानुभव की ऐसी कोई अचिन्त्य महिमा है। यह समझकर रे जीव! उसकी आराधना में तू तत्पर हो।
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