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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
आत्मा स्वयमेव उपयोगरूप है-इस प्रकार राग से पार जो उपयोग काम करता है, वही आत्मा का परमार्थ लक्षण है।
सम्यग्दृष्टि जानते हैं कि रागादि भाव मेरे उपयोग से विरुद्ध स्वभाववाले हैं; जड़-चेतन का सत्य पृथक्करण उनकी समझ में
आ चुका है, और अपना सत्यस्वरूप सदा उपयोगस्वरूप ही दिखता है। उन्हें ज्ञान और राग की भिन्नता का यथार्थ निर्णय होता है, और उस निर्णय में नव तत्त्वों की परमार्थ श्रद्धा भी आ जाती है। __उस सम्यग्दृष्टि को चैतन्यस्वरूप से परिपूर्ण अपने आत्मा में सावधानी होती है; उसकी परिणति का उत्साह निजस्वरूप की ओर ढलता है। अब कोई राग या परद्रव्य अपने स्वरूप के साथ एकत्वरूप उसे नहीं दिखता। ऐसा भेदज्ञान भी सम्यग्दर्शन के साथ में ही होता है, एवं आत्मा के आनन्दमय स्वभाव का अनुभव भी हो जाता है। अहा, यह कोई अपूर्व कृतकृत्यदशा है। __ ऐसा अपूर्व सम्यग्दर्शन होने के बाद, जो अल्प राग शेष रह जाय, उसके कारण इस जीव को कदाचित एक-दो कोई उत्तम भव करना पड़े, तो भी उन भव में उन्हें चैतन्य की आराधना का अपूर्व सुख रहा करता है; तथा संयोगरूप से बाह्य में भी उन्हें विशिष्ट उत्तम पुण्य का योग बनता है, फिर भी वे उसके स्वामी नहीं होते। वे जानते हैं कि ये पुण्य के ठाट तो विकल्प का फल है। ज्ञान को और विकल्प को आपस में कारण-कार्यभाव नहीं है। आत्मा का स्वभाव आनन्दमय है। आनन्द की पर्याय, पुण्य से नहीं होती; परवस्तु या रागभाव कारण होकर के आत्मा को आनन्द नहीं दे सकते। मेरा आत्मा स्वयं ही स्वाधीनरूप से साधन होकर, अन्य
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