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सम्यग्दर्शन : भाग -6 ]
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और विकल्प तो अन्धकाररूप है । ऐसा अनुभव आठ वर्ष की बालिका भी कर सकती है, मेंढ़क भी कर सकता है; असंख्यात तिर्यञ्च, नारकी, देवों को ऐसा अनुभव है । बालक या मेंढ़क तो देह की दशा है, अन्दर रहा हुआ चैतन्यस्वरूप जीव ऐसा अनुभव करता है ।
मति-श्रुतज्ञान, पर को जानने में परोक्ष हैं परन्तु स्व-संवेदन के काल में तो इन्द्रिय तथा मन से छूटकर प्रत्यक्ष हुए हैं। अनुभव -काल में वचन नहीं, विकल्प नहीं - ऐसा अनुभव है, वह जीव के प्रत्यक्ष-अनुभवनशील है और सर्व विकल्पों का क्षयकरणशील है; इस प्रकार अस्ति-नास्ति दोनों पहलू लिये हैं । जहाँ ज्ञान अन्तर में झुका, वहाँ वह जीव शुद्धस्वरूप का अनुभवनशील हुआ और समस्त विकल्प बाहर रह गये; इसलिए विकल्प का क्षयकरणशील हुआ। अनुभवशील अर्थात् शुद्धस्वरूप का अनुभव करने का ही जिसका स्वभाव है और क्षयकरणशील अर्थात् सर्व विकल्पों का क्षय करने का जिसका स्वभाव है - ऐसी शुद्ध जीववस्तु है। एक सूक्ष्म विकल्पमात्र के व्यवहार को भी अनुभव में रहने दे - ऐसा जीव का स्वभाव नहीं है परन्तु सम्पूर्ण शुद्धस्वभाव को अनुभव में ले और सर्व परभावों को बाहर निकल डाले - ऐसा स्वभाव है ।
अरे ! जो वीर होकर आत्मा का अनुभव करने आया, उसका पुरुषार्थ छिपता नहीं है। सूर्य कहीं ढँका रहता होगा ! इसी प्रकार चैतन्य के अनुभव का ज्वाजल्यमान सूर्य जहाँ उदित हुआ, उसमें कहीं उस विकल्प का अन्धकार रहता होगा ? विकल्प को उपजावे, ऐसा आत्मा का स्वभाव नहीं है परन्तु सर्व विकल्पों का क्षय करके
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