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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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के स्वरूप को यदि उनके आत्मिकलक्षणों से वास्तविक पहिचाने तो उसे भेदज्ञान और सम्यग्दर्शन अवश्य होता ही है परन्तु यह पहिचानने की विधि राग से पार है। राग में खड़े रहकर यह पहिचान नहीं होती; ज्ञानभाव में रहकर यह पहिचान होती है। ___ इस प्रकार केवलज्ञान के स्वरूप का निर्णय करनेवाला ज्ञान भी, केवलज्ञान की जाति का ही हो जाता है। साधक के श्रुतज्ञान में भी ऐसी अचिन्त्य ताकत है। केवलज्ञान बड़ा भाई है तो श्रुतज्ञान छोटा भाई है। दोनों की जाति एक ही है। मति, श्रुत, अवधि, मनः, केवल सबहि एक हि पद जु है। वो ज्ञानपद परमार्थ है, जो पाय जीव मुक्ती लहे ॥
(समयसार, गाथा 204)
अपूर्व भावना मिथ्यात्व आदिक भाव की, कर जीव ने चिर भावना। सम्यक्त्व आदिक भाव की, पर की कभी न प्रभावना ॥१०॥
निरञ्जन निज परमात्म तत्त्व के श्रद्धानरहित अनासन्न भव्य जीव ने मिथ्यात्वादि भावों को पूर्व में सुचिरकाल भाये हैं परन्तु स्वरूप शून्य ऐसे उस बहिरात्म जीव ने सम्यग्दर्शन-सम्यक्ज्ञान
और सम्यक्चारित्र को पूर्व में कभी नहीं भाया है। इस मिथ्यादृष्टि जीव से विपरीत गुण समुदायवाला अति आसन्नभव्य जीव होता है अर्थात् भव के अभाव के लिये पूर्व में कभी नहीं भायी हुई ऐसी अपूर्व भावना वह निरन्तर भाता है।
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