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________________ www.vitragvani.com 68] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 से उनका आदर कर और उन्होंने आत्मा का जैसा शुद्धस्वरूप कहा है, वैसा तू जान, उसकी श्रद्धा कर... ऐसे सम्यग्दर्शन से तेरा परम कल्याण होगा। -ऐसे बहुत प्रकार से मुनिराज ने सम्यग्दर्शन का उपदेश दिया... उसे सुनकर हाथी के परिणाम अन्तर्मुख हुए... और अन्तर में अपने आत्मा का सच्चा स्वरूप देखकर उसे सम्यग्दर्शन हुआ... परम आनन्द का अनुभव हुआ... उसे ऐसा लगा कि 'अहा! अमृत का सागर मेरे आत्मा में डोल रहा है... परभावों से भिन्न सच्चा सुख मेरे आत्मा में अनुभव आ रहा है । क्षणमात्र ऐसे आनन्द के अनुभव से अनन्त भव की थकान उतर जाती है।' – ऐसे आत्मा का बारम्बार अनुभव करने का उसका मन हुआ... उपयोग बारम्बार अन्तर में एकाग्र होने लगा। इस अनुभव की अचिन्त्य अपार महिमा का कोई पार नहीं था। बारम्बार उसे ऐसा लगा कि अहो! इन मुनिराज ने अद्भुत उपकार करके आत्मा का मूल स्वरूप मुझे समझाया। आत्म-उपयोग सहजरूप से शीघ्रता से अपने स्वस्वरूप की ओर झुकने से सहज निर्विकल्पस्वरूप अनुभव में आया... चैतन्य प्रभु अपने 'एकत्व' में आकर निजानन्द में डोलने लगा... वाह! आत्मा का स्वरूप कोई अद्भुत है। उसमें मात्र शान्तरस का ही वेदन है, अनन्त गुण का रस उसमें समाहित है-ऐसे परमतत्त्व को पाकर मेरे चैतन्य प्रभु को मैंने मुझमें ही देखा। -ऐसा सम्यग्दर्शन होने पर हाथी के आनन्द का कोई पार नहीं है। उसकी आनन्दमय चेष्टायें तथा उसकी आत्मशान्ति देखकर मुनिराज को भी ख्याल आ गया कि यह हाथी का जीव आत्मज्ञान को प्राप्त हुआ है, भव का छेद करके यह मोक्ष के मार्ग में आया है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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