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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
हाथी अत्यन्त भक्ति से सुनता है। मुनिराज के श्रीमुख से आत्मा के स्वरूप की ओर सम्यग्दर्शन की बात सुनते हुए उसे महान हर्षोल्लास हुआ है। उसके परिणाम अधिक से अधिक निर्मल होते जाते हैं... उसके अन्तर में सम्यग्दर्शन की तैयारी चल रही है ।
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मुनिराज उसे आत्मा का परम शुद्धस्वरूप दिखलाते हैं-रे जीव ! तेरा आत्मा अनन्त गुणरत्नों का खजाना है.... यह हाथी का स्थूल शरीर तो पुद्गल है, यह कहीं तू नहीं है; तू तो ज्ञानस्वरूप है। तेरे ज्ञानस्वरूप में पाप तो नहीं और पुण्य का शुभराग भी नहीं; तू तो वीतरागी आनन्दमय है - ऐसे तेरे स्वरूप को तू अनुभव में ले... और उसकी श्रद्धा करके सम्यग्दर्शन धारण कर ।
जगत में सम्यग्दर्शन ही जीव को साररूप है; वही मोक्ष की सीढ़ी है, वही धर्म का मूल है; सम्यग्दर्शन के बिना कोई भी धर्म -क्रिया नहीं होती; सम्यग्दर्शन के बिना समस्त क्रियायें व्यर्थ हैं। सम्पूर्ण संसार, मिथ्यात्व के दावानल में सुलग रहा है; उसमें से यह सम्यग्दर्शन ही जीव को तारणहार है। वीतराग सर्वज्ञ अरिहन्तदेव, रत्नत्रय धारक दिगम्बर मुनिराज - गुरु और हिंसारहित वीतरागभावरूप धर्म-ऐसे देवे-गुरु धर्म को पहिचान कर, श्रद्धा कर अत्यन्त भक्ति
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