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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
मस्तक पर रखकर मुझे स्नेहयुक्त कर रहे हैं! अहा! इन मुनिवरों ने मुझे-धर्म के प्यासे मानव को-सम्यग्दर्शनरूपी अमृत पिलाया है; इससे मेरा मन सन्तापरहित अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है.... ___ आर्य वज्रजंघ उन प्रीतिकर मुनिराज के महान उपकार का बारम्बार चिन्तवन करता है-अहा! वे प्रीतिकर नामक छोटे मुनिराज वास्तव में 'प्रीतिकर' ही हैं, इसीलिए दूर-दूर से यहाँ आकर, मुझे सम्यग्दर्शन का उपदेश देकर उन्होंने हम पर अपार प्रीति दर्शायी है। वे महाबल के भव में भी मेरे स्वयंबुद्ध नामक गुरु थे और आज इस भव में भी मुझे सम्यग्दर्शन प्रदान कर वे मेरे विशेष गुरु हुए हैं। यदि संसार में ऐसी गुरुओं की संगति न हो तो गुणों की प्राप्ति भी नहीं हो सकती और सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्राप्ति के बिना जीव के जन्म की सफलता भी नहीं होती। धन्य है जगत में ऐसे गुरुओं को, कि जिनकी संगति से भव्य जीवों को सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्राप्ति होती है।
वन-जंगल में वीतरागी सन्त प्रतिक्षण प्रतिपल अपने अन्तर तत्त्व को निर्विकल्प होकर अनुभव करते हैं। अहा! धन्य है, वह अनुभव का पल! धर्मी गृहस्थ भी घर में कभी ऐसा निर्विकल्प अनुभव करता है। अहा! अपने अन्तरतत्त्व का निर्णय करे तो अन्तर में उतरकर अनुभव करने का अवसर आवे। स्वद्रव्य कैसा है ? उसे पहिचानकर उसे उपादेय करनेयोग्य है। उपादेय किस प्रकार करना? उसके सन्मुख होकर अनुभव किया तो वह उपादेय हुआ और उससे विरुद्ध समस्त विभाव हेय हो गये, उनका लक्ष्य छूट गया... और चैतन्य की महा आनन्दमय अनुभूति रह गयी।
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