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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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ज्ञानी सन्त, जीव को समझाते हैं कि हे जीव! तेरे चिदानन्दस्वभाव को तू जड़ की क्रियारूप, पुण्यरूप या रागरूप मत मानना; जड़ द्वारा या राग द्वारा चैतन्य की कीमत मत आँकना। इसकी कीमत तो अचिन्त्य है। यह तो प्रतिक्षण केवलज्ञान और सिद्धपद प्रदान करे-ऐसे निधानवाला है। राग द्वारा या शरीर द्वारा इसकी कीमत नहीं हो सकती; इसकी कीमत तो जगत में उत्कृष्ट में उत्कृष्ट तीन – सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप सच्चे रत्नों द्वारा ही हो सकती है। इसलिए हे जीव! तेरी कीमत तू कम मत आँकना । तू परमात्मशक्ति का भण्डार है। ___ संसार में बड़े व्यक्ति को कोई छोटा कहे तो रुचता नहीं है और नाराज होता है; राजा को कोई भिखारी कहे तो उसे सुहाता नहीं है; करोड़ की पूँजीवाले को कोई हजार की या लाख की ही पूँजीवाला कहे तो उसे अच्छा नहीं लगता। ___ तो फिर, आत्मा स्वयं पूर्ण स्वभाववाला परमात्मा होने पर भी अज्ञानी उसे जड़वाला-शरीरवाला-रागवाला और अपूर्ण पामर मनवाते हैं, वह तुझे कैसे रुचता है ? आत्मार्थी को तो उसका निषेध आता है कि अरे! यह मेरा स्वरूप नहीं है; मैं तो सिद्ध भगवान जैसा परमात्मा हूँ-इस प्रकार अपने परमात्मस्वभाव का उल्लास से स्वीकार करनेवाला जीव अल्प काल में परमात्मा होता है।
कोई शुभराग की कीमत में सम्यग्दर्शन माँगे, अर्थात् शुभराग से सम्यग्दर्शन प्राप्त होना माने तो उसे सम्यग्दर्शन की सच्ची कीमत की खबर नहीं है।
जैसे कोई खोटे सिक्के द्वारा स्वर्ण लेने जाये तो वह गुनहगार
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