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________________ www.vitragvani.com 46] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 सर्व साधु-भगवन्तों को नमस्कार किया जाता है। अहो! मुनिदशा तो अलौकिक परमेष्ठीपद है। मुनि तो भगवान हैं, उन्हें कौन नहीं माने? परन्तु जिसे मुनिदशा हो, उसे मुनि माना जाये न? मुनिदशा तो मोक्ष का मार्ग है, वह तो आत्मा की श्रद्धासहित महा आनन्दरूप वीतरागदशा है। जिसे ऐसी मनिदशा न हो, श्रद्धा भी सच्ची न हो, मुनि के योग्य आचरण भी न हो-ऐसों को मुनि मान लेने पर तो सच्चे मुनिभगवन्तों का अनादर होता है। सच्चे मुनि को परम आदर से मानते हैं। जिन्हें अन्तर में आत्मा का भान हो और अन्दर बहुत लीनतारूप चारित्रदशा में आत्मा के परम आनन्द की घुट पीते हों, अत्यन्त दिगम्बरदशा हो-ऐसे मुनि तो भगवान हैं। अभी ऐसे मुनि के दर्शन यहाँ दुर्लभ हैं परन्तु इससे कहीं चाहे जिस विपरीत स्वरूपवाले को मुनि नहीं मान लिया जाता। यह तो वीतराग का मार्ग है, इसमें गड़बड़ नहीं चलती। अपने हित के लिये सच्चा निर्णय करने की यह बात है। __ जिसे भव के दुःख से छूटना हो और आत्मा का मोक्षसुख अनुभव करना हो, उसके लिये यह बात है। मिथ्यात्वरूप जो महान रोग, उससे कैसे छूटा जाये?-इसकी यह विधि बतलाते हैं। जिसने रागादि परभावों में एकता मानी और उनसे भिन्न ज्ञानचेतना को नहीं जाना, उसे सम्यग्दर्शन भी नहीं तो मुनिदशा कहाँ से होगी? भाई! एक बार तू परभावों से भिन्न तेरी ज्ञानचेतनावन्त वस्तु को अनुभव ले तो तुझे सम्यग्दर्शन होगा और तेरे जन्म-मरण का अन्त आयेगा। ऐसी ज्ञानचेतना का अनुभव, गृहस्थ को भी चौथे गुणस्थान में होता है। अहा! आठ वर्ष की बालिका भी ऐसा अनुभव कर सकती है। चाहे जितने शुभभाव करे परन्तु ऐसे Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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