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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
परम वीतरागी शान्ति का वेदन करना हो तो हम राग से भिन्न तेरा स्वपद तुझे बतलाते हैं, उस चैतन्यमय स्वपद को तू अन्तर में देख... परभाव से पराङ्मुख होकर इस स्वभाव की ओर आ ।
वाह रे वाह ! वीतरागी सन्त, जगत के जीवों को मोक्ष के मार्ग में बुलाते हैं कि इस ओर आओ, इस ओर आओ ! अन्तर का आनन्दमय शुद्ध चैतन्यमय पद दिखलाकर कहते हैं कि वाह ! यह तुम्हारा स्थिर चैतन्यपद महा आनन्दसहित शोभायमान हो रहा है। इस चैतन्यपद में तुम आओ, इसे ही तुम अनुभव करो और रागादि को परपद जानकर उनका अनुभव छोड़ो। स्वपद में आने से तुम्हें कोई अद्भुत-अपूर्व आनन्द होगा ।
प्रभु ! तू आनन्द का भण्डार है, तेरी पर्याय में भी आनन्द ही शोभा देता है; तेरी पर्याय में राग शोभा नहीं देता । राग तो अशुद्ध है, तू तो शुद्ध चैतन्यमय है; तेरा कार्य भी शुद्ध ही होता है, रागादि अशुद्धता वह वास्तव में तेरा कार्य नहीं । चैतन्य का कार्य तो चैतन्यभावरूप ही होता है; अचेतनरूप (रागरूप) उसका कार्य नहीं होता। द्रव्य से और पर्याय से सर्व प्रकार से शुद्ध चैतन्यरसमय तेरा निजपद है। अनन्तानन्त गुण की शान्ति का वैभव तुझमें भरा है। ऐसे निज वैभव से भरपूर निजपद को देखकर तू आनन्दित हो – इस प्रकार सन्त आनन्द के धाम में बुलाते हैं ।
वाह रे वाह ! कैसा सुन्दर है मेरा यह आनन्दधाम ! आनन्दधाम बतलाकर सन्तों ने महान उपकार किया है ॥
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