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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
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हुआ वह व्यवहार प्रयोजनवान है । 'उस काल में प्रयोजनवान्' ऐसा कहकर उसका ज्ञान कराया है परन्तु उसका आश्रय तो छोड़नेयोग्य है । व्यवहार के भावों से भिन्न पड़कर परमार्थ आत्मा की दृष्टि की, तभी व्यवहार का ज्ञान सच्चा हुआ। जो परमार्थ की दृष्टि न करे और व्यवहार के आश्रय की बुद्धि रखे, उसे तो व्यवहार का भी सच्चा ज्ञान नहीं होता, उसे तो शास्त्रों में व्यवहारमूढ़ कहा है ।
भाई ! तेरे आत्मा में जो निश्चय और व्यवहार है, उसका यह रहस्य शास्त्रों में स्पष्ट किया है; उसे तू पहचान तो सही! निश्चय क्या और पर्याय में व्यवहार कैसा होता है ? – उसे जानना चाहिए। व्यवहारनय भी जाननेयोग्य है परन्तु ग्रहण करनेयोग्य नहीं । सम्यक्त्वादि के लिये ग्रहण करनेयोग्य एक परमज्ञायकभाव ही है
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आत्मा का शुद्धस्वरूप एक प्रकार का है, उसे शुद्धनय देखता है; व्यवहार में पर्याय के अनेक प्रकार पड़ते हैं, उन्हें व्यवहारनय दिखाता है-ऐसे निश्चय-व्यवहारनय साधक को ही होते हैं; अज्ञानी को नहीं होते, केवली को नहीं होते । अज्ञानी को तो शुद्ध आत्मा की दृष्टि ही न होने से साधकभाव शुरु ही नहीं हुआ; और केवलज्ञानी को तो पूर्णता हो गयी है; बीच में जो साधक है, जिन्हें शुद्ध आत्मा की दृष्टि से साधकदशा शुरु हुई है, परन्तु अभी पूर्ण नहीं हुई, वे साधक जीव दोनों नयों के ज्ञानपूर्वक शुद्धस्वभाव के आश्रय से शुद्धता को साधते जाते हैं । इसका नाम धर्म और मोक्षमार्ग है जिसने इस प्रकार निश्चय - व्यवहार जानकर शुद्ध आत्मा की दृष्टि की, उसने अपने आत्मा में मोक्ष के लिये मङ्गल शिलान्यास किया। अब अल्प काल में वह जीव, मोक्ष- मन्दिर में अनन्त आनन्दसहित सादि-अनन्त काल तक विराजमान होगा । •
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