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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [21 सर्वथा एकमेक नहीं परन्तु भिन्न स्वभाववाले हैं। जैसे पानी और कीचड़ सर्वथा एक नहीं, इस कारण निर्मली औषधि द्वारा उन्हें भिन्न किया जा सकता है; उसी प्रकार शुद्धनयरूपी परम निर्मल औषध द्वारा आत्मा को और मोहादि अशुद्धभावों को भिन्न करके शुद्ध आत्मा का अनुभव हो सकता है। आत्मा का सहज एक ज्ञायकभाव तो सदा ही विद्यमान है परन्तु एकान्त राग को ही अनुभव करनेवाले अज्ञानी की दृष्टि में वह ज्ञायकभाव दिखायी नहीं देता; इसलिए अज्ञानी के लिये वह ढंक गया है-ऐसा कहा है। उसका कहीं अभाव नहीं हो गया है परन्तु अज्ञानी की दृष्टि में वह दिखायी नहीं देता; उसे तो अशुद्धता ही दिखती है। सहज एक ज्ञायकभाव को देखने के लिये तो शुद्धनय की दृष्टि चाहिए। शुद्धनय में ही ऐसी ताकत है कि सर्व अशुद्धभावों से भिन्न एक सहज ज्ञायकभावरूप से आत्मा को अनुभव में लेता है। शुद्धनय स्वयं भूतार्थ आत्मस्वभाव में अभेद होकर उसे अनुभवता है; इसलिए उसे भूतार्थ कहा है। ऐसा अनुभव ही सम्यग्दर्शन है, उसमें आत्मा का आनन्द झरता है। उसकी दृष्टि में भगवान आत्मा जैसा है, वैसा शुद्धरूप से प्रगट हुआ; पहले तिरोभूत था, वह अब शुद्धनय द्वारा प्रगट हुआ। इसमें भूतार्थ आत्मा का ज्ञान और सम्यग्दर्शन दोनों एक साथ है। जो कर्म के साथ सम्बन्धरहित शुद्धज्ञानरस से भरपूर आत्मा को नहीं अनुभव करता, वह अपने को कर्म की ओर के अशुद्धभावरूप ही अनुभव करता है, अर्थात् वह कर्म को ही अनुभव करता है। व्यवहारनय ऐसे अशुद्ध आत्मा को देखता है, इसलिए वह अभूतार्थ है-असत्यार्थ है। आत्मा के सत्य-भूतार्थस्वभाव को Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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