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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
ज्ञानस्वभावरूप अपना निर्णय करके, राग से भिन्न पड़कर स्वसन्मुख हुआ, वहाँ एक क्षण में सम्यग्दर्शन होता है। एक क्षण में मिथ्यात्व का नाश करके सम्यग्दर्शन करने की आत्मा में अचिन्त्य सामर्थ्य है।
सम्यग्दर्शन के लिये शुद्ध आत्मा का स्वरूप आचार्यदेव समझाते हैं, तब जिज्ञासु शिष्य आँखें फाड़कर अर्थात् समझने की धगश से ज्ञान को एकाग्र करके लक्ष्य में लेता है; उसे शुद्धात्मा को लक्ष्य में लेने की इन्तजारी है। सुनते-सुनते ऊँघता नहीं, अथवा सन्देह या उकताहट नहीं करता परन्तु टकटकी लगाकर समझने की ओर ज्ञान को एकाग्र करता है।
शुद्धात्मा का स्वरूप सुनते हुए तत्क्षण ही उसमें उपयोग लगाकर एकाग्र करता है, प्रमाद नहीं करता। बाद में विचार करूँगा, घर जाकर फिर करूँगा, फुर्सत से करूँगा' इस प्रकार वेदरकारी नहीं करता परन्तु तत्क्षण ही वैसे शुद्ध आत्मा में उपयोग का एकाग्र करता है और आनन्दपूर्वक आत्मा का अनुभव करता है-ऐसी उत्तम पात्रतावाला शीघ्र तुरन्त ही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर जाता है।
जिस प्रकार ऋषभदेव के जीव को जुगलिया के भव में मुनियों ने सम्यग्दर्शन का उत्तम उपदेश प्रदान करके कहा कि हे आर्य! तू अभी ही ऐसे सम्यक्त्व को ग्रहण कर (तत्गृहाणाद्य सम्यक्त्वं तत्लाभे काल एष ते।)-मुनियों का वह उपदेश सुनते ही उसी क्षण अन्तर्मुख होकर उस जीव ने सम्यग्दर्शन प्रगट किया। इस प्रकार उत्तम पात्रतावाले जीव की बात ली है कि जिसे उपदेश सुनते ही तुरन्त अन्तर में परिणमित हो जाता है।
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