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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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मोक्ष को साधने के लिये
मुमुक्षु को शीघ्रता से करने योग्य कार्य
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मोक्ष को साधने के लिये मुमुक्षु को शीघ्र करने योग्य कार्य क्या है, वह यहाँ समझाते हैं । भगवान आत्मा, देह से भिन्न ज्ञानानन्दस्वरूप वस्तु है; वह अपने को भूलकर अपने अतिरिक्त किसी भी दूसरे पदार्थ के आश्रय से सुख होना माने तो उसमें मिथ्यात्व का सेवन होता है । आचार्यदेव समझाते हैं कि हे भाई! तेरा स्वभाव तुझसे परिपूर्ण है, तेरे ही आश्रय से तेरी मुक्ति होती है; किसी दूसरे का आश्रय करने से तो अशुभ या शुभराग से बन्धन और दुःख ही होता है। मुक्ति का मार्ग, पर के आश्रय से नहीं; मुक्ति, स्वद्रव्य के आश्रित है... इसलिए स्वद्रव्य का आश्रय करना मुमुक्षु का कार्य है।
ते जीव है ! तो तेरा जीवपना कैसा है ? तेरा जीवन कैसा है ? उसकी यह बात है । तू स्वयं अतीन्द्रिय आनन्दरस का पूर है। शरीर तो जड़ है, और अन्दर के पुण्य-पाप के रागभाव भी अशुचि हैं, उनमें चैतन्य का आनन्द नहीं । वे पराश्रित भाव, मुक्ति का कारण नहीं हो सकते; मुक्ति का मार्ग, चैतन्यमय स्वद्रव्य के आश्रित है। शुद्ध आत्मा को जो नहीं पहिचानते, उसके सन्मुख होकर सच्चा श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र प्रगट नहीं करते और पराश्रित शुभभावरूप व्यवहारश्रद्धा-ज्ञान-चारित्र को मोक्ष का कारण समझकर सेवन करते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं ।
भाई ! तू स्वद्रव्य को जानकर उसका आश्रय कर, तो ही मोक्षमार्ग प्रगट होगा । स्वद्रव्य और परद्रव्य की भिन्नता को
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