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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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इसलिए शरीर सुख का साधन नहीं है; उसी प्रकार निचलीदशा में सशरीर जीवों को भी शरीर, सुख का साधन नहीं है। अज्ञानी मिथ्या कल्पना से भले माने कि शरीर और इन्द्रिय-विषयों में सुख है परन्तु वह कल्पना भी शरीर के कारण या विषयों के कारण नहीं हुई है। वे शरीरादिक तो अचेतन हैं, वे जीव की परिणति में अकिंचित्कर हैं
अज्ञानी का जो कल्पित इन्द्रियसुख (सच्चा सुख नहीं परन्तु सुख की मात्र कल्पना), उसमें भी शरीर कुछ साधन नहीं होता; सुख की कल्पनारूप शरीर परिणमित नहीं होता अथवा शरीर ऐसा नहीं कहता कि तू मुझमें सुख की कल्पना कर । अज्ञानी अपने मोह के वश ही पर में सुख की मिथ्या कल्पना करता है । इस प्रकार संसार अवस्था में कल्पित सुख में भी शरीर आदि विषय, साधन नहीं होते, तो फिर सिद्ध भगवन्तों का जो परम अतीन्द्रिय सहज आत्मिक सुख, उसमें शरीरादि विषय क्या करेंगे ? वे तो अकिंचित्कर हैं। इस प्रकार इन्द्रिय-विषयों से रहित आत्मा का सुख प्रसिद्ध करके समझाया। अहो! ऐसे सुख को कौन नहीं स्वीकार करेगा ? आत्मा के ऐसे सुखस्वभाव को जानकर बाह्य विषयों में सुखबुद्धि कौन नहीं छोड़ेगा ?
आचार्यदेव कहते हैं कि भव्य जीव, आत्मा के सुख की यह बात सुनते ही उल्लास से उसका स्वीकार करता है और बाह्य विषयों में सुख की बुद्धि तुरन्त ही छोड़ता है। ऐसा जीव अल्प काल में मोक्षसुख को प्राप्त करता है, वर्तमान में भी उसका अद्भुत नमूना चख लेता है।
देखो, यह मोक्षसुख की मजा की बात !!
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