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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] वीतरागस्वभाव का अनादर होता है; इसलिए वह तो मिथ्यात्वरूप महादोष है । राग को ही मोक्षमार्ग माना तो उस राग से भिन्न पड़कर वीतरागस्वभाव को किस प्रकार साधेगा ? इसलिए प्रथम, राग से अत्यन्त भिन्न चैतन्यस्वभाव को जानकर भेदज्ञान करना और बारम्बार अन्तर में उसकी भिन्नता का अभ्यास करना, यह मुमुक्षु का कर्तव्य है। ऐसा जीव अन्तर में चैतन्य के अनुभव का निरन्तर अभ्यास करते हुए अन्तर्मुहूर्त में अथवा अधिक से अधिक छह महीने में अवश्य आत्मा के आनन्द को प्राप्त करता है । वह जीव, जगत् की व्यर्थ पंचायत में कहीं नहीं रुकता। मेरे आत्मा को मैं कैसे देखूँ - ऐसे एक आत्मा का ही अर्थी होकर उसी की लगन द्वारा शीघ्रता से मोह छोड़कर चैतन्य - विलासी आत्मा का अनुभव करता है। । भाई! दुनिया क्या माने, और क्या करे - यह बात उसके घर रही; यह तो दुनिया की दरकार छोड़कर स्वयं अपने आत्मा का हित कर लेने की बात है । जिसे आत्मा की धुन लगे, उसका मन दुनिया में कहीं स्थिर नहीं होता । आत्मा के अनुभव बिना उसे कहीं चैन नहीं मिलती। दुनिया का रस छूटकर आत्मरस की ऐसी धुन चढ़ जाती है कि उपयोग शीघ्रता से अपने में एकाग्र होकर सम्यग्दर्शन कर लेता है। आहाहा ! सम्यग्दर्शन होने पर आत्मा में जो महा आनन्द का वेदन हुआ, उसकी क्या बात! अनन्त गुण की अतीन्द्रिय शान्तिका समुद्र आत्मा के वेदन में उल्लसित होता है । धन्य है ऐसा स्वरूप साधनेवाले जीवों को। • 346 [167 ( एक मुमुक्षु ) Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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