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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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उनका बाह्य वर्तन भी उत्तम और ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न होता है। उस ज्ञानी जीव को जहाँ आत्मा के दर्शन हुए और मैं चैतन्यमय आत्मा ही हूँ; अन्य कुछ मैं नहीं हूँ—ऐसा निर्विकल्प भेदज्ञान द्वारा निर्णय किया, वहाँ उसे सर्व जीवों के प्रति समभावरूप ऐसी दष्टि हो गयी है कि मेरी तरह जगत के सर्व जीव भी ज्ञानस्वरूपी भगवान हैंइस प्रकार सर्व जीवों में आत्मवत् बुद्धि के कारण उसे किसी के प्रति राग-द्वेष का अभिप्राय नहीं रहा; इसलिए राग-द्वेष अत्यन्त ही मन्द पड़ गये हैं और जगत् के प्रति सहज उदासीनभाव आ गया है। बाह्य संयोगों की अपेक्षा कदाचित् उसे बहुत निर्धनता हो, रोगादि हो, बाहर में अपमान होता हो, तथापि अन्तर में चैतन्य के अनन्त-अनन्त वैभव से भरपूर अपने आत्मा की महत्ता स्वयं साक्षात् जानता होने से उसे दीनता नहीं होती; बाह्य वस्तु की आकांक्षा की मुख्यता कभी भी नहीं होती। मन में ऐसा विकल्प भी नहीं आता कि मुझे परवस्तु मिले तो मैं सुखी होऊँ। प्रति समय भेदज्ञानधारा चालू ही होने से आत्मस्वभाव की परम गम्भीर महिमा के समक्ष उसे बाहर की कोई वस्तु महिमावन्त नहीं लगती। चैतन्य की अकषाय शान्ति के वेदनपूर्वक अनन्तानुबन्धी कषायभाव का अभाव हो गया है। इस कारण किसी प्रसंग में कषायभाव की तीव्रता नहीं होती। आत्मशान्ति की कोई अपूर्व मस्ती वर्तती है, उसके साथ जगत के प्रति निस्पृहता-सरलता-भद्रिकता, देवगुरु-शास्त्र के प्रति बहुमान भक्ति प्रभावना और साधर्मीजनों के प्रति परम वात्सल्यता इत्यादि भाव भी होते हैं। इस प्रकार उसे अनेक गुण बाह्य और अन्तरंगरूप से खिल उठे हैं। अपनी आत्मदशा में वह निशंक है। अपने अपूर्व शान्ति के वेदन की जो दशा प्रगट
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