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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
एकमेक होने के लिये उपयोग बारम्बार अन्दर उतरना चाहता है। आहा...हा... ! ऐसे ज्ञानानन्दस्वभाव की अपूर्व महिमा लाकर उसके चिन्तन की धुन में उस जीव को अन्तर में शान्ति और अनाकुलता बढ़ती जाती है। __जिस प्रकार स्वर्ण की शुद्धता करने के लिये उसे अग्नि में तपाया जाता है, और वह सोना ज्यों-त्यों तपता जाता है, त्यों-त्यों उसकी शुद्धता और पीलापन इत्यादि बढ़ते जाते हैं; इसी प्रकार यह जिज्ञासु जीव भी ज्ञान और राग की भिन्नता के विचाररूपी ताप में तपते-तपते शुद्धता की ओर आगे बढ़ता जाता है; अब श्रद्धा की शुद्धता होने में देरी नहीं है। आहा...हा...! ऐसे विचार की और निर्णय की अपूर्व भूमिका में आने पर उस मुमुक्षु को बाह्य चेष्टायें भी शान्त-गम्भीर और स्थिर होती जाती हैं। सम्यग्दर्शनरूपी सूर्योदय से पहले स्वसन्मुख विचारधारा आना, वह भी बलिहारी है; और ऐसी विचारधारा के अन्ततः परिणाम अन्तर में एकाग्र होने से आनन्द के वेदनसहित सम्यग्दर्शन का प्रकाश होता है।
–धन्य वह दशा... धन्य वह वेदनअहा! ऐसे अपूर्व सम्यग्दर्शन होने के बाद के वर्तन और विचारधारा का क्या कहना? जहाँ सम्यग्दर्शनरूपी सूर्य अनन्त चैतन्य किरणों सहित प्रकाशित हो रहा है, उस अपूर्व दशा की अपूर्वता का वर्णन वाणी में तो कितना किया जा सकता है ? श्रीमद् राजचन्द्रजी ने कहा है कि 'देह छंता जैनी दशा वर्ते देहातीत'सम्यग्दर्शन भी देहातीत दशा है। उसमें देहभाव छूटकर अपूर्व आत्मभाव जागृत हुआ है। अहो! ऐसी दशा जिन्हें प्रगट हुई,
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