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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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का कार्य नहीं है । विकल्प के स्वाद की अपेक्षा मेरे ज्ञान की जाति ही अलग है। राग का एक अंश भी ज्ञानरूप भासित नहीं होता । ऐसे निर्णय के बल से जिसे एक बार आत्मा का रंग चढ़ जाये, वह जीव, राग से भिन्न पड़कर ज्ञानस्वभाव का साक्षात् अनुभव करता है। विकल्पों से अत्यन्त रिक्त होकर ज्ञानस्वभाव में तन्मयरूप से परिणमित हुआ वह जीव, अपने को परमात्मरूप अनुभव करता है, और ऐसा अनुभव करनेवाला जीव अल्प काल में साक्षात् परमात्मदशा को पाता है । आत्म-अनुभूति होने के काल में आत्मा अपने निजरस से ही अनन्त गुण के शान्त - अनाकुल स्वादरूप परिणमता है; उसमें विकल्प का स्वाद नहीं, अकेले चैतन्यरस का स्वाद है ।
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ऐसे आत्म-सन्मुख जीव का वर्तन अलग प्रकार का होता है दुनिया के बीच रहता हुआ होने पर भी, दुनिया से भिन्न उसका अन्तर काम करता है। दुनिया के विषयों का रस छूटकर उसे तो मात्र आत्मा की धुन लगती है । कषाय के प्रसंग उसे नहीं रुचते; दुनिया की पंचायत वह अपने सिर नहीं रखता । अपने महान आत्मतत्त्व को लक्ष्य में लेने के अतिरिक्त अन्य किन्हीं कार्यों में आत्मा की शक्ति खर्च करना उसे नहीं पोसाता; इसीलिए सर्व शक्ति से अपने परिणाम को वह आत्मसन्मुख ही झुकाता जाता है।
अरे! अनन्त काल से मेरा मूल्यवान स्वरूप समझे बिना मैंने अपने आत्मा का बिगाड़ किया है परन्तु अब इस भव में तो मुझे मेरे आत्मा का सुधार कर लेना है। अपूर्व सत्समागम प्राप्त हुआ है, वह मुझे सफल करना है। अब भव दुःख की मुझे थकान लगी है, जगत की महिमा मुझे नहीं चाहिए; मुझे तो मेरे आत्मा की शान्ति
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