SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [117 ऐसी तीव्र लगन जिज्ञासु जीव को होते ही उसके विचारों में परिवर्तन आता है और उसे संसार का सुख खारा-खारा लगता है। उसे कहीं शान्ति नहीं लगती। कुटुम्ब-सगे-सम्बन्धी इत्यादि सब उसे पर लगते हैं और सत्समागम तथा वैराग्य-प्रेरक प्रसंग उसे विशेष रुचते हैं। उसे प्रतिक्षण ऐसा होता है कि मैं क्या करूँ! कहाँ जाऊँ ? किसकी शरण खोचूँ कि जिससे मुझे शान्ति हो; किसका सत्संग करूँ कि जिससे आत्मा की समझ पड़े? अरे, इस संसार के चक्र जाल में मुझे कहीं चैन नहीं हैमैं कौन हूँ ? आया कहाँ से? और मेरा रूप क्या? संबंध दुःखमय कौन है ? स्वीकृत करूँ परिहार क्या? -ऐसे विवेकपूर्वक अन्दर में शान्तभाव से विचार करता है तथा वह समझने के लिए गुरुवचन का श्रवण-मनन, स्वाध्याय करता है; संसार से चित्त को पराङ्मुख करके देव-गुरु की भक्ति में लीन करता है; पुरुषार्थ को दृढ़ करने के लिए अपनी वृत्तियों को इधर-उधर भटकने से रोककर आत्मविचार में जोड़ने के लिए यत्न करता है। अन्तर का मार्ग खोजने को ज्ञानी गुरु के समीप जाकर अपने हृदय की वेदना दर्शाता है और चैतन्य के हित की विधि समझने के लिए चटपटाहटपूर्वक प्रश्न पूछकर, अपने मन का समाधान खोजने के लिए तत्पर होता है । वह अत्यन्त आर्दभाव से श्रीगुरु से प्रार्थना करता है कि – हे प्रभु! इस संसार भ्रमण से अब मैं थक गया हूँ, मुझे संसार सुख प्रिय नहीं है; संसार से छूटकर मेरा आत्मा परम सुख को प्राप्त करे-ऐसा उपाय कृपा करके मुझे बताओ। संसार Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy