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________________ www.vitragvani.com 112] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 सम्यक्त्वरूप से परिणमन कर रहे जीव के दुष्ट अष्ट कर्मों का क्षय होता है। देखो, यह सम्यक्त्व की सामर्थ्य ! सम्यक्त्व होने पर अनन्त कर्म खिरने लगते हैं, गुणश्रेणी निर्जरा शुरु होती है। मोक्ष के लिये उसे आत्मा का ही अवलम्बन रहा, संसार का मूल कट गया, मोक्ष का बीज रोपकर अंकुर उगा। कर्मों की ओर का झुकाव नहीं रहा; इसलिए कर्म निर्जरित होते जाते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्वरूपी बीज नाश हुआ, वहाँ कर्म का विषवृक्ष अल्प काल में सूख जाता है। अनन्तानुबन्धी की कषायें तो नष्ट हुई, अवशेष कषायें भी अत्यन्त मन्द हो गयी। उसे क्रम-क्रम से शुद्धता बढ़ती जाती है और अनुक्रम से चारित्र तथा शुक्लध्यान का सहकार मिलने पर सर्व कर्म नष्ट होकर, केवलज्ञान और मोक्ष प्रगट होता है। यह सब सम्यग्दर्शन की महिमा है। जिसे सम्यग्दर्शन हुआ, उसके मोक्ष का दरवाजा खुल गया। जो उत्तम पुरुष पूर्व में सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, अभी होते हैं और भविष्य में प्राप्त होंगे, वह सब इस सम्यक्त्व का ही माहात्म्य जानकर, सम्यक्त्व को ही सिद्धि का मूल कारण जानकर, उसे प्राप्त करके, उसमें ही एकाग्रता करना चाहिए। यह सम्यग्दर्शन धर्म का बीज है, कल्पवृक्ष है, चिन्तामणि है, कामधेनु है। छह खण्ड के राजवैभव के बीच रहनेवाले चक्रवर्ती भी ऐसे सम्यग्दर्शन की आराधना करते हैं। सम्यक्त्वी जानता है कि अहो! मेरी ऋद्धि-सिद्धि मेरे चैतन्य में है। जगत् की ऋद्धि में मेरी ऋद्धि नहीं है। जगत् से निरपेक्षरूप से मुझमें ही मेरी सर्व Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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