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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] दुःख का क्षय करने के लिये अचलरूप से दृढ़रूप से सम्यक्त्व को निरन्तर ध्याओ-अर्थात् शुद्ध आत्मा को ध्याओ । गृहस्थपने में जो क्षोभ-क्लेश-दुःख होता है, वह ऐसे सम्यक्त्व के परिणमन द्वारा नष्ट हो जाता है। देखो, यह दुःख के नाश का उपाय ! ऐसा सम्यक्त्व प्राप्त होने से धर्म होता है और आत्मा में निर्मलता बढ़ती जाती है। चाहे जैसे उपसर्ग आ पड़ें परन्तु ऐसे सम्यक्त्व से अन्दर शुद्धात्मा पर जहाँ नजर करे, वहाँ धर्मात्मा सम्पूर्ण संसार को भूल जाता है। ऐसा सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् उसले सर्वज्ञअनुसार सर्व वस्तु का स्वरूप यथार्थ जाना है; इसलिए अब बाहर के कोई भी कार्य बिगड़ें या सुधरें, परन्तु वह अपने सम्यक्त्व से चलित नहीं होता। ऐसी सम्यक्त्व की निष्कम्पता द्वारा निःशंकरूप से यथार्थ वस्तुस्वरूप का चिन्तवन करता है कि सर्वज्ञदेव ने वस्तुस्वरूप जिस प्रकार जाना है, उसी प्रकार उसका परिणमन होता है; कोई उसे बदलने में समर्थ नहीं है। इसलिए उसके परिणमन में इष्ट-अनिष्टपना मानकर रागी -द्वेषी होना निरर्थक है । पर का परिणमन पर के आधार से है, उसमें मुझे कोई इष्ट या अनिष्ट नहीं है; इसलिए उसमें कहीं राग-द्वेष करने का मेरा कार्य नहीं है; मैं तो मात्र ज्ञानस्वभावी हूँ - ऐसी वस्तु के स्वरूप की भावना से दुःख मिटता है-यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है। इसलिए श्रावक को दुःख के क्षय के लिये सम्यक्त्व ग्रहण करके मेरु जैसी दृढ़ से उसे निरन्तर भाना, ध्याना । [111 गृहस्थपने में रहे हुए श्रावक को भी चैतन्य का निर्विकल्प ध्यान करना, जिससे निर्मलरूप से मेरु समान अकम्पपना आता है। चाहे जैसी प्रतिकूलता में भी उसकी श्रद्धा डिगती नहीं है। ऐसे Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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