SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [109 इन सात तत्त्वों का स्वरूप विचारने पर समुच्चरूप से विकल्प का रस टूटता है और चैतन्य का रस घुलता है; इसलिए आत्मा की परिणति, स्वभावसन्मुख उल्लसित होती जाती है। उस समय अपना विचार, अर्थात् आत्मा का मनन करते हुए मैं एक आत्मा हूँ, ज्ञायक हूँ, सिद्ध हूँ, बुद्ध हूँ-इत्यादि विचार होते हैं अथवा तो अतीन्द्रिय हूँ, सर्व से भिन्न हूँ, ज्ञान मेरा स्वभाव है, राग मेरा स्वभाव नहीं- ऐसे स्व और पर की भिन्नता के विचार होते हैं, अथवा तो आत्मा की अनन्त शक्तियों के विचार होते हैं। इस प्रकार अनेक प्रकार से आत्मा की महिमा के और स्व-पर के भेदज्ञान के विचार होते हैं। ऐसे किसी भी प्रकार से अपने स्वभाव की ओर झुकने के विचार होते हैं । इस प्रकार जब अन्तर की कोई अद्भुत स्वभाव -सन्मुख की उग्र धारा शुरु होती है, उस समय फिर सभी प्रकार के विकल्प शान्त होने लगते हैं और चैतन्यरस घुलता जाता है। उस समय विशुद्धता के अति सूक्ष्म परिणामों की धारा द्वारा अन्तर में तीन करण हो जाते हैं; उन तीन करण के काल में जीव के परिणाम स्वरूप के चिन्तन में अधिक से अधिक मग्न होते जाते हैं। इस प्रकार आत्मा के स्वरूप में मग्न होने पर निर्विकल्पदशा होकर परम शान्त अनुभूति द्वारा जीव स्वयं अपने को साक्षात् अनुभव करता है... इसका नाम सम्यग्दर्शन। – ऐसा सम्यग्दर्शन होने से पहले जीव का वर्तन विषयों से विरक्त, संसारी कार्यों से उदासीन, स्वभावसन्मुख के झुकाववाला, साधु-सन्तों-ज्ञानियों के संघ में रहने की अथवा तो विशेषरूप से एकान्त में आत्मचिन्तन करने का होता है। ऐसी बाहर की भी उसकी प्रवृत्ति होती है और अन्तर में स्वभाव के रस का घोलन Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy