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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
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स्वभाव की महिमा का घोलन करते-करते ।। अन्त में उसमें मग्न होकर मुमुक्षु स्वानुभव करता है
- [२] - सम्यग्दर्शन होने पर पहले आत्मसन्मुख जीव का वर्तन तथा विचारधारा अपने आत्महित को पोषण दे, उस प्रकार का होता है। किसी भी प्रकार से आत्मा की महिमा ला-लाकर वह अपने स्वभाव की ओर झुकता जाता है और अन्तरस्वभाव -सन्मुख की किसी अद्भुत धारा द्वारा स्वानुभव करके निर्विकल्प हो जाता है।
सम्यग्दर्शन होने से पहले आत्मसन्मुख जीव का वर्तन तथा विचारधारा अपने आत्महित को पोषण दे, उस प्रकार का होता है। जिसे सम्यक्त्व प्राप्त करना है, वैसी तैयारीवाले जीव को सर्व प्रथम अपने ज्ञानस्वभाव की महिमा लक्ष्य में लेना चाहिए। मैं एक आत्मद्रव्य हूँ, मुझमें ज्ञान है और मेरे ही ज्ञान द्वारा मैं मेरे आत्मा का भान कर सकता हूँ-इस प्रकार की भावना से प्रथम ज्ञान किस प्रकार प्राप्त करना, वह विचारता है। इसके लिए किसी ज्ञानी के समीप रहकर अथवा तो गुरुगम अनुसार स्वयं सत्शास्त्रों का जैसे बने वैसे जिज्ञासु होकर अभ्यास करता है, अर्थात् तत्त्वों का भलीभाँति अभ्यास करता है। शास्त्र में कहा है कि तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' -इसलिए जीवादि सात तत्त्वों को ज्यों का त्यों जानना; अर्थात् जीव को जीवरूप से; अजीव को अजीवरूप से; पुण्य-पापआस्रव को आस्रवरूप से-इसी प्रकार सातों तत्त्वों को भलीभाँति जानकर श्रद्धा करना। सम्यग्दर्शन होने में प्रथम इन सात तत्त्वों की पहिचान खास होनी चाहिए।
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