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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [85 छूट जाते हैं। स्वभाव के दरबार में परभाव का प्रवेश नहीं है। स्वभाव में आये बिना, परभाव के लक्ष्य से परभावों से बचा नहीं जा सकता; इसलिए एक साथ समस्त परभावों से बचने का उपाय यह है कि वहाँ से उपयोग को पराङ्मुख करके स्वभाव में उपयोग लगाना। यह आत्मा ऐसा आनन्दमयी चैतन्य प्रकाश का पुंज है, कि इसका स्फुरण होते ही (अर्थात् उपयोग इसमें झुकते ही) समस्त परभावों का इन्द्रजाल (विकल्प तरंगें) तत्क्षण भाग जाता है और आनन्द होता है। प्रश्न : सम्यग्दर्शन प्राप्त हो, तब जो आनन्द अनुभव में आया, उसका भाषा में वर्णन आ सकता है क्या? उत्तर : उस वेदन का वाणी में पूरा वर्णन नहीं आता; अमुक वर्णन आवे, उससे सामनेवाला जीव यदि वैसे लक्ष्यवाला हो तो सच्ची स्थिति समझ जाता है। * सम्यग्दर्शन की पहिचान * प्रश्न : कोई जीव सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुआ है, उसे पहिचानने का लक्षण क्या? कि जिससे दूसरे मनुष्य सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के बीच का अन्तर समझ सकें? उत्तर : अकेले बाहर की क्रिया के चिह्न से सम्यग्दृष्टि को नहीं पहिचाना जा सकता। जिसे स्वयं को सम्यक्त्व का स्वरूप लक्ष्यगत हुआ हो, वही सम्यग्दृष्टि को वास्तव में पहिचान सकता है। सम्यग्दर्शन स्वयं अतीन्द्रिय वस्तु है, अकेले इन्द्रियगम्य चिह्नों द्वारा उसे नहीं पहिचाना जा सकता। सम्यग्दृष्टि की सच्ची पहिचान तब होती है कि जब अपने में उस प्रकार का भाव प्रगट करे। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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