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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
के अनेक प्रसंग दिखने पर भी क्या वीतराग को खेद होता है? किंचित् भी नहीं। यदि वीतराग खेद नहीं करते तो मैं किसलिए
खेद करके दु:खी होऊँ?-क्या मैं भी वीतराग जैसा ही नहीं? क्या मुझे वीतरागता नहीं रुचती? क्या मुझे वीतराग नहीं होना? मुझे वीतरागता रुचती है तो फिर ऐसे अल्प प्रसंग में ऐसा खेद करना मुझे शोभा नहीं देता–इस प्रकार शूरवीर होकर, हे जीव! तू वीतरागी आदर्श को अपना ले।
★ जागृत जीव स्वयं ही अपनी ताकत से चाहे जिस प्रसंग में समाधान करे वैसा है। सत्संग का वातावरण क्षण में और पल में जीव को जागृत रखकर वैराग्य की प्रेरणा दिया ही करता है। जगत् के किसी प्रसंग की ताकत नहीं कि आत्मार्थी की वैराग्य परिणति को तोड़ सके। ___ * राम के द्वारा हुआ अपमान या घोर वनवास भी सीताजी की ज्ञानदशा को या वैराग्यदशा को जरा-सा भी झटका नहीं पहुँचा सका था। घोरातिघोर अपवाद या फाँसी की सजा इत्यादि उपसर्ग भी वीर सुदर्शन सेठ को वैराग्य भावना से जरा भी विचलित नहीं कर सके थे। ___ * मैं ज्ञान हूँ- ऐसी निजानन्द की अनुभूति में से समकिती को जगत में कौन विचलित कर सकता है ? दूर के दृष्टान्त कहाँ ढूँढ़ना?
अपनी नजर के समक्ष ही ज्ञानी कैसे वीतरागभाव से शोभित हो रहे हैं ! कैसा सरस है उनका आत्मभाव! हम भी उनके भक्त हैं न! उनके जैसा वीतरागभाव अपने को उनसे सीखना है, यही समाधान का उपाय है; यही शान्ति की राह है, यही कर्तव्य है।
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