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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
सन्त बतलाते हैं.... रत्नों की खान हो देखो तो सही ! सन्तों को आत्मा की प्रभुता का कितना प्रेम है ! आत्मा तो अनन्त गुण-रत्नों से भरपूर महारत्नाकर है। समुद्र को रत्नाकर कहा जाता है। आत्मा अनन्त गुण से भरपूर समुद्रचैतन्य रत्नाकर है; उसमें इतने रत्न भरे हैं कि एक-एक गुण का क्रमशः कथन करने पर कभी पूर्ण न हो। आत्मा चैतन्य रत्नाकर तो सर्वाधिक महान है।
★ रत्न : सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, ये मोक्षमार्ग के तीन रत्न हैं।
★ महा रत्न : इस रत्नत्रय के फल में केवलज्ञानादि प्रगट होते हैं, वे महा रत्न हैं।
★ महान से भी महान रत्न : ज्ञानादि एक-एक गुण में अनन्त केवलज्ञान रत्नों की खान भरी है, इसलिए वह महा-महा रत्न है।
★ महा-महा-महारत्न : ऐसे अनन्त गुण-रत्नों की खान आत्मा तो महा-महा-महा रत्न है। उसकी महिमा की क्या बात !
भाई! ऐसा महिमावन्त रत्न तू स्वयं है। महान रत्नों की खान तुझमें भरी हुई है। इसके अतिरिक्त परचीज़ तुझमें नहीं; वह चीज़ तेरी नहीं; व्यर्थ की पर की चिन्ता तूने तेरे गले लगायी है। वास्तव में जो तेरा हो, वह तुझसे कभी भिन्न नहीं पड़ता और तुझसे भिन्न पड़े, वह वास्तव में तेरा नहीं होता। क्या ज्ञान, स्वभाव से कभी भिन्न पड़ेगा? – नहीं; क्योंकि वह आत्मा से भिन्न नहीं है, वह तो आत्मा ही है। शरीरादि आत्मा के नहीं, इसलिए वे आत्मा से भिन्न
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