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________________ www.vitragvani.com 50] [सम्यग्दर्शन : भाग-4 'अहो, यह आत्मा तो केवलज्ञानस्वरूप है। उन्हें पूर्ण ज्ञानसामर्थ्य है और विकार किंचित् भी नहीं; मेरा आत्मा भी अरिहन्त जैसा ही स्वभाववाला है।' ___ जिसने ऐसी प्रतीति की, उसे अब स्वद्रव्य की ओर ही ढलना रहा परन्तु निमित्तों की ओर ढलना न रहा, क्योंकि अपनी पूर्णदशा अपने स्वभाव में से आती है, निमित्त में से नहीं आती तथा उसे पुण्य-पाप की ओर या अपूर्ण दशा की ओर भी देखना नहीं रहा क्योंकि विकार या अपूर्णता, वह आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं है, उसमें से पूर्णदशा नहीं आती। जिसमें पूर्णदशा प्रगट होने की सामर्थ्य है-ऐसे अपने द्रव्य-गुण में ही पर्याय की एकाग्रता करना रहा। ऐसी एकाग्रता की क्रिया करते-करते पर्याय शुद्ध हो जाती है और मोह का अभाव होता है। 5 ऐसी एकाग्रता की क्रिया कौन करता है? जिसने प्रथम अरिहन्त भगवान को पहचाना हो और अरिहन्त जैसा अपने आत्मा का स्वरूप ख्याल में लिया हो, वह जीव, पर्याय की अशुद्धता टालकर शुद्धता प्रगट करने के लिये अपने शुद्धस्वभाव में एकाग्रता का प्रयत्न करता है परन्तु जो जीव, अरिहन्त भगवान को नहीं पहचानता, अरिहन्त जैसे अपने स्वरूप को नहीं पहचानता और पुण्य-पाप को ही अपना स्वरूप मान रहा है, वह जीव, अशुद्धता मिटाकर शुद्धता प्रगट करने का प्रयत्न नहीं करता। इसलिए सर्व प्रथम आत्मा का शुद्धस्वरूप पहचानना चाहिए और उसके लिये अरिहन्त भगवान के द्रव्य, गुण, पर्याय को पहचानना चाहिएयह धर्म की पद्धति है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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