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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
विराटस्वरूप विष्णु मुनिराज ने एक पैर मनुष्यलोक के एक छोर पर और दूसरा दूसरे छोर पर रखकर बलिराजा से कहा बोल, अब तीसरा पैर कहाँ रखूँ ? तीसरा पैर रखने की जगह दे, नहीं तो तेरे सिर पर रखकर तुझे पाताल में उतारे देता हूँ ।
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मुनिराज की विक्रियाऋद्धि से चारों ओर कोलाहल मच गया, सारा ब्रह्माण्ड काँप उठा । देवों और मनुष्यों ने आकर विष्णुकुमार मुनि की स्तुति की और विक्रिया समेट लेने की प्रार्थना की। बलि-राजा तथा चारों मन्त्री मुनिराज के चरणों में गिरकर अपनी भूल की क्षमा माँगने लगे – प्रभु क्षमा करो ! हमने आपको पहिचाना नहीं।
विष्णु मुनिराज ने क्षमापूर्वक उन्हें अहिंसाधर्म का स्वरूप समझाया तथा जैन मुनियों की वीतरागी क्षमा की महिमा बतलाकर आत्महित का परम उपदेश दिया । उसे सुनकर उनका हृदयपरिवर्तन हो गया और घोर पाप की क्षमा माँग कर उन्होंने आत्महित का मार्ग ग्रहण किया। अहा ! विष्णुकुमार की विक्रियाऋद्धि बलि आदि मन्त्रियों को धर्म-प्राप्ति का कारण बन गयी। उन जीवों ने अपने परिणाम क्षणभर में बदल लिए। अरे! ऐसे शान्त-वीतरागी मुनियों पर हमने ऐसा उपसर्ग किया, हमें धिक्कार है ! ऐसे पश्चातापपूर्वक उन्होंने जैनधर्म अङ्गीकार किया। इस प्रकार मुनिराज ने बलिराजा आदि का उद्धार किया और सात सौ मुनियों की रक्षा की।
चारों ओर जैनधर्म की जय-जयकार होने लगी । शीघ्र ही वह हिंसक यज्ञ रोक दिया गया। मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ और श्रावक परम भक्तिभाव से मुनियों की सेवा में लग गए। विष्णुकुमार
स्वयं वहाँ जाकर मुनियों की वैयावृत्त्य की और मुनियों ने भी विष्णुकुमार के वात्सल्य की प्रशंसा की । अहा ! वात्सल्य का वह
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